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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
अरिष्टासुर
का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना
श्री
शुक उवाच -
अथ
तर्ह्यागतो गोष्ठं अरिष्टो वृषभासुरः ।
महीं
महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम् ॥ १ ॥
रम्भमाणः
खरतरं पदा च विलिखन् महीम् ।
उद्यम्य
पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन् ॥ २ ॥
किञ्चित्किञ्चित्
शकृन् मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः ।
यस्य
निर्ह्रादितेनाङ्ग निष्ठुरेण गवां नृणाम् ॥ ३ ॥
पतन्त्यकालतो
गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै ।
निर्विशन्ति
घना यस्य ककुद्यचलशङ्कया ॥ ४ ॥
तं
तीक्ष्णशृङ्गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः ।
पशवो
दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम् ॥ ५ ॥
कृष्ण
कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः ।
भगवानपि
तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम् ॥ ६ ॥
मा
भैष्टेति गिराश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत् ।
गोपालैः
पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम ॥ ७ ॥
बलदर्पहाहं
दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम् ।
इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं
तलशब्देन कोपयन् ॥ ८ ॥
सख्युरंसे
भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः ।
सोऽप्येवं
कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन् ।
उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः
क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत् ॥ ९ ॥
अग्रन्यस्तविषाणाग्रः
स्तब्धासृग् लोचनोऽच्युतम् ।
कटाक्षिप्याद्रवत्
तूर्ण् इन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा ॥ १० ॥
गृहीत्वा
शृङ्गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः ।
प्रत्यपोवाह
भगवान् गजः प्रतिगजं यथा ॥ ११ ॥
सोऽपविद्धो
भगवता पुनरुत्थाय सत्वरम् ।
आपतत्
स्विन्नसर्वाङ्गो निःश्वसन् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १२ ॥
तं
आपतन्तं स निगृह्य शृङ्गयोः
पदा
समाक्रम्य निपात्य भूतले ।
निष्पीडयामास
यथाऽऽर्द्रमम्बरं
कृत्वा
विषाणेन जघान सोऽपतत् ॥ १३ ॥
असृग्
वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्
क्षिपंश्च
पादाननवस्थितेक्षणः ।
जगाम
कृच्छ्रं निर्ऋतेरथ क्षयं
पुष्पैः
किरन्तो हरिमीडिरे सुराः ॥ १४ ॥
एवं
कुकुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः द्विजातिभिः ।
विवेश
गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः ॥ १५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ
आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक
दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल
दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती
काँप रही थी ॥ १ ॥ वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ
खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि
तोड़ता जाता था ॥ २ ॥ बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें
फाडक़र इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित् ! उसके जोरसे हँकडऩेसे—निष्ठुर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओंके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित
हो जाते थे और पाँच छ:-महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुद्को पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ॥ ३-४ ॥ परीक्षित् !
उस तीखे सींगवाले बैलको देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर
गये कि अपने रहनेका स्थान छोडक़र भाग ही गये ॥ ५ ॥ उस समय सभी व्रजवासी ‘श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! हमें इस भयसे बचाओ’ इस
प्रकार पुकारते हुए भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान् ने देखा कि हमारा
गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ॥ ६ ॥ तब उन्होंने ‘डरनेकी
कोई बात नहीं है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर
वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख ! महादुष्ट ! तू इन गौओं और
ग्वालोंको क्यों डरा रहा है ? इससे क्या होगा ॥ ७ ॥ देख,
तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं
हूँ।’ इस प्रकार ललकारकर भगवान्ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित
करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान् श्रीकृष्णकी
इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता
हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल
तितर-बितर होने लगे ॥ ८-९ ॥ उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे
टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा,
मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ॥ १० ॥ भगवान् श्रीकृष्णने
अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिडऩेवाले
दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह
पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ॥ ११ ॥ भगवान् के इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही
उठ खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी- लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उस
समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ॥ १२ ॥ भगवान् ने जब देखा कि वह अब
मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़
लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका
कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद
उसीका सींग उखाडक़र उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया ॥
१३ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर
पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग
भगवान्पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १४ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने इस
प्रकार बैलके रूपमें आनेवाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी
गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और
उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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