॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वसुदेव जी का
यज्ञोत्सव
श्रीमुनय ऊचुः -
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
विमोहिता
विश्वसृजामधीश्वराः ।
यदीशितव्यायति गूढ
ईहया
अहो विचित्रं
भगवद् विचेष्टितम् ॥ १६ ॥
अनीह एतद् बहुधैक
आत्मना
सृजत्यवत्यत्ति
न बध्यते यथा ।
भौमैर्हि
भूमिर्बहुनामरूपिणी
अहो
विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७ ॥
अथापि काले
स्वजनाभिगुप्तये
बिभर्षि
सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।
स्वलीलया वेदपथं
सनातनं
वर्णाश्रमात्मा
पुरुषः परो भवान् ॥ १८ ॥
ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं
तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तं
अव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९ ॥
तस्माद् ब्रह्मकुलं
ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।
सभाजयसि सद्धाम तद्
ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २० ॥
अद्य नो जन्मसाफल्यं
विद्यायास्तपसो दृशः ।
त्वया सङ्गम्य सद्गत्या
यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१ ॥
नमस्तस्मै भगवते
कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
स्वयोगमाययाच्छन्न महिम्ने
परमात्मने ॥ २२ ॥
न यं विदन्त्यमी भूपा
एकारामाश्च वृष्णयः ।
मायाजवनिकाच्छन्नं आत्मानं
कालमीश्वरम् ॥ २३ ॥
यथा शयानः पुरुष आत्मानं
गुणतत्त्वदृक् ।
नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद
रहितं परम् ॥ २४ ॥
एवं त्वा नाममात्रेषु
विषयेष्विन्द्रियेहया ।
मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद
स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५ ॥
तस्याद्य ते ददृशिमाङ्घ्रिमघौघमर्ष
तीर्थास्पदं
हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।
उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशा
आपुर्भवद्गतिमथानुगृहान
भक्तान् ॥ २६ ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।
राजर्षे
स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७ ॥
तद् वीक्ष्य
तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।
प्रणम्य
चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८ ॥
श्रीवसुदेव उवाच -
नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ ।
कर्मणा
कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम् ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया ।
कृष्णं मत्वार्भकं
यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः ॥ ३० ॥
सन्निकर्षोऽत्र
मर्त्यानां अनादरणकारणम् ।
गाङ्गं हित्वा
यथान्याम्भः तत्रत्यो याति शुद्धये ॥ ३१ ॥
यस्यानुभूतिः कालेन
लयोत्पत्त्यादिनास्य वै ।
स्वतोऽन्यस्माच्च
गुणतो न कुतश्चन रिष्यति ॥ ३२ ॥
तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहैः
अव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम् ।
प्राणादिभिः
स्वविभवैरुपगूढमन्यो
मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः ॥ ३३ ॥
अथोचुर्मुनयो राजन् आभाष्यानकदुंदुभिम् ।
सर्वेषां श्रृणतां
राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः ॥ ३४ ॥
कर्मणा कर्मनिर्हार
एष साधुनिरूपितः ।
यच्छ्रद्धया यजेद्
विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः ॥ ३५ ॥
मुनियोंने कहा—भगवन् ! आपकी मायासे प्रजापतियोंके अधीश्वर
मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर
होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओंसे अपनेको छिपाये रखकर जीवकी भाँति आचरण करते
हैं। भगवन् ! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है ॥ १६ ॥ जैसे
पृथ्वी अपने विकारों—वृक्ष, पत्थर,
घट आदिके द्वारा बहुत-से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तवमें वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन
होनेपर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आपसे ही इस जगत्की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे लिप्त नहीं
होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत- भेदशून्य एकरस अनन्त है,
उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है ? धन्य है आपकी यह लीला ! ॥ १७ ॥ भगवन् ! यद्यपि आप प्रकृतिसे परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समयपर
भक्तजनोंकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट
करते हैं और अपनी लीलाके द्वारा सनातन वैदिक मार्गकी रक्षा करते हैं; क्योंक सभी वर्णों और आश्रमोंके रूपमें आप स्वयं ही प्रकट हैं ॥ १८ ॥
भगवन् ! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और
समाधिके द्वारा उसीमें आपके साकार-निराकार रूप और दोनोंके अधिष्ठान-स्वरूप
परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार होता है ॥ १९ ॥ परमात्मन् ! ब्राह्मण ही वेदोंके
आधारभूत आपके स्वरूपकी उपलब्धिके स्थान हैं; इसीसे आप
ब्राह्मणोंका सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तोंमें अग्रगण्य भी हैं ॥ २०
॥ आप सर्वविध कल्याण-साधनोंकी चरमसीमा हैं और संत पुरुषोंकी एकमात्र गति हैं। आपसे
मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और
ज्ञान सफल हो गये। वास्तवमें सबके परम फल आप ही हैं ॥ २१ ॥ प्रभो ! आपका ज्ञान
अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा
भगवान् हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाके द्वारा अपनी महिमा छिपा रक्खी है,
हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ ये सभामें बैठे हुए राजालोग और
दूसरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार
करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तवमें नहीं जानते; क्योंकि
आपने अपने स्वरूपको—जो सबका आत्मा, जगत्का
आदिकारण और नियन्ता है—मायाके परदेसे ढक रखा है ॥ २३ ॥ जब
मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्नके मिथ्या
पदार्थोंको ही सत्य समझ लेता है और नाममात्रकी इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले अपने
स्वप्नशरीरको ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देरके लिये इस बातका
बिल्कुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीरके अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्थाका शरीर भी
है ॥ २४ ॥ ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्थामें भी
इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चित्त मोहित होकर नाममात्रके विषयोंमें भटकने
लगता है। उस समय भी चित्तके चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान
पाता कि आप इस जाग्रत् संसारसे परे हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त
परिपक्व योग-साधनाके द्वारा आपके उन चरणकमलोंको हृदयमें धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशिको नष्ट करनेवाले गङ्गाजलके भी आश्रयस्थान हैं। यह बड़े
सौभाग्यकी बात है कि आज हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो ! हम आपके भक्त हैं,
आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम
पदकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिङ्गशरीररूप
जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजर्षे ! भगवान्की इस
प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्रसे तथा धर्मराज
युधिष्ठिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोंने अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया ॥ २७ ॥
परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया
और उनके चरण पकडक़र बड़ी नम्रतासे निवेदन करने लगे ॥ २८ ॥
वसुदेवजीने
कहा—ऋषियो ! आपलोग सर्वदेवस्वरूप
हैं। मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन
लीजिये। वह यह कि जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे कर्मों और कर्मवासनाओंका आत्यन्तिक नाश—मोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ॥२९॥
नारदजीने कहा—ऋषियो ! यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि
वसुदेवजी श्रीकृष्णको अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणका साधन
हमलोगोंसे पूछ रहे हैं ॥ ३० ॥ संसारमें बहुत पास रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ
करता है। देखते हैं, गङ्गातटपर रहनेवाला पुरुष गङ्गाजल छोडक़र
अपनी शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमें जाता है ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्णकी अनुभूति समयके फेर से
होनेवाली जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलयसे मिटनेवाली नहीं
है। वह स्वत: किसी दूसरे निमित्त से, गुणोंसे और किसीसे भी
क्षीण नहीं होती ॥ ३२ ॥ उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष
आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दु:खादि
कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणोंके प्रवाहसे खण्डित नहीं है । वे स्वयं अद्वितीय
परमात्मा हैं। जब वे अपनेको अपनी ही शक्तियों—प्राण आदिसे ढक
लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके द्वारा अपने नेत्रोंके
ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान लेते हैं ॥ ३३ ॥
परीक्षित् !
इसके बाद ऋषियोंने भगवान् श्रीकृष्ण,
बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही वसुदेवजीको सम्बोधित करके
कहा— ॥ ३४ ॥ ‘कर्मोंके द्वारा
कर्मवासनाओं और कर्मफलोंका आत्यन्तिक नाश करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ
आदिके द्वारा समस्त यज्ञोंके अधिपति भगवान् विष्णुकी श्रद्धापूर्वक आराधना करे ॥
३५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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