शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा ।

दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः ॥ ३६ ॥

अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः ।

यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः ॥ ३७ ॥

वित्तैषणां यज्ञदानैः गृहैर्दारसुतैषणाम् ।

आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद्‌बुधः ।

ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम् ॥ ३८ ॥

ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितॄणां प्रभो ।

यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तानि अनिस्तीर्य त्यजन्पतेत् ॥ ३९ ॥

त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते ।

यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ॠणोऽशरणो भव ॥ ४० ॥

वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम् ।

जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वां पुत्रतां गतः ॥ ४१ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः ।

तान् ऋषीन् ऋत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च ॥ ४२ ॥

त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम् ।

तस्मिन् अयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः ॥ ४३ ॥

तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः ।

स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः ॥ ४४ ॥

तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।

दीक्षाशालामुपाजग्मुः आलिप्ता वस्तुपाणयः ॥ ४५ ॥

नेदुर्मृदङ्गपटह शङ्खभेर्यानकादयः ।

ननृतुर्नटनर्तक्यः तुष्टुवुः सूतमागधाः ।

जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः संगीतं सहभर्तृकाः ॥ ४६ ॥

तमभ्यषिञ्चन् विधिवद् अक्तं अभ्यक्तमृत्विजः ।

पत्‍नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः ॥ ४७ ॥

ताभिर्दुकूलवलयैः हारनूपुरकुण्डलैः ।

स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः ॥ ४८ ॥

तस्यर्त्विजो महाराज रत्‍नकौशेयवाससः ।

ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे ॥ ४९ ॥

तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैः बन्धुभिरन्वितौ ।

रेजतुः स्वसुतैर्दारैः जीवेशौ स्वविभूतिभिः ॥ ५० ॥

 

त्रिकालदर्शी ज्ञानियोंने शास्त्रदृष्टिसे यही चित्तकी शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है ॥ ३६ ॥ अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ की आराधना करना ही द्विजातिब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग है ॥ ३७ ॥ वसुदेवजी ! विचारवान् पुरुषको चाहिये कि यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्रकी इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैंइस विचारसे लोकैषणाको त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों प्रकारकी एषणाओंइच्छाओंका परित्याग करके तपोवनका रास्ता लिया करते थे ॥ ३८ ॥ समर्थ वसुदेवजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीनों देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसारका त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है ॥ ३९ ॥ परम बुद्धिमान् वसुदेवजी ! आप अबतक ऋषि और पितरोंके ऋणसे तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञोंके द्वारा देवताओंका ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान्‌ की शरण हो जाइये ॥ ४० ॥ वसुदेवजी ! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वर भगवान्‌ की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं ॥ ४१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! परम मनस्वी वसुदेवजीने ऋषियोंकी यह बात सुनकर, उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञके लिये ऋत्विजोंके रूपमें उनका वरण कर लिया ॥ ४२ ॥ राजन् ! जब इस प्रकार वसुदेवजीने धर्मपूर्वक ऋषियोंको वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें परम धाॢमक वसुदेवजीके द्वारा उत्तमोत्तम सामग्रीसे युक्त यज्ञ करवाये ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वसुदेवजीने यज्ञकी दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियोंने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलोंकी मालाएँ धारण कर लीं, राजालोग वस्त्राभूषणोंसे खूब सुसज्जित हो गये ॥ ४४ ॥ वसुदेवजीकी पत्नियोंने सुन्दर वस्त्र, अङ्गराग और सोनेके हारोंसे अपनेको सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्दसे अपने-अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर यज्ञशालामें आयीं ॥ ४५ ॥ उस समय मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वोंके साथ सुरीले गलेवाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं ॥ ४६ ॥ वसुदेवजीने पहले नेत्रोंमें अंजन और शरीरमें मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियोंके साथ उन्हें ऋत्विजोंने महाभिषेककी विधिसे वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमाका अभिषेक हुआ था ॥ ४७ ॥ उस समय यज्ञमें दीक्षित होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणोंसे खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियोंके साथ भलीभाँति शोभायमान हुए ॥ ४८ ॥ महाराज ! वसुदेवजीके ऋत्विज और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्रके यज्ञमें हुए थे ॥ ४९ ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियोंके साथ समस्त जीवोंके ईश्वर स्वयं भगवान्‌ समष्टि जीवोंके अभिमानी श्रीसङ्कर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायण- स्वरूपमें शोभायमान होते हैं ॥ ५० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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