शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः ।

प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैः द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम् ॥ ५१ ॥

अथर्त्विग्भ्योऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः ।

स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः ॥ ५२ ॥

पत्‍नीसंयाजावभृथ्यैः चरित्वा ते महर्षयः ।

सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः ॥ ५३ ॥

स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः ।

ततः स्वलङ्कृतो वर्णान् आश्वभ्योऽन्नेन पूजयत् ॥ ५४ ॥

बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा ।

विदर्भकोशलकुरून् काशिकेकय सृञ्जयान् ॥ ५५ ॥

सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान् ।

श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम् ॥ ५६ ॥

धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ ।

नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्संबंधिबांधवाः ॥ ५७ ॥

बन्धून्परिष्वज्य यदून् सौहृदाक्लिन्नचेतसः ।

ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः ॥ ५८ ॥

नन्दस्तु सह गोपालैः बृहत्या पूजयार्चितः ।

कृष्णरामोग्रसेनाद्यैः न्यवात्सीद्‌बन्धुवत्सलः ॥ ५९ ॥

वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम् ।

सुहृद्‌वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन् ॥ ६० ॥

 

श्रीवसुदेव उवाच -

भ्रातरीशकृतः पाशो नृनां यः स्नेहसंज्ञितः ।

तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम् ॥ ६१ ॥

अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।

मैत्र्यर्पिताफला चापि न निवर्तेत कर्हिचित् ॥ ६२ ॥

प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि ।

अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः ॥ ६३ ॥

मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद ।

स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक् ॥ ६४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं सौहृदशैथिल्य चित्त आनकदुन्दुभिः ।

रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन् अश्रुविलोचनः ॥ ६५ ॥

नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविन्दरामयोः ।

अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत् ॥ ६६ ॥

ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः ।

परार्ध्याभरणक्षौम नानानर्घ्यपरिच्छदैः ॥ ६७ ॥

वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः ।

दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ ॥ ६८ ॥

नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे ।

मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुं अनीशा मथुरां ययुः ॥ ६९ ॥

बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः ।

वीक्ष्य प्रावृषमासन्नाद् ययुर्द्वारवतीं पुनः ॥ ७० ॥

जनेभ्यः कथयां चक्रुः यदुदेवमहोत्सवम् ।

यदासीत् तीर्थयात्रायां सुहृत् संदर्शनादिकम् ॥ ७१ ॥

 

वसुदेवजी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानकेमन्त्रों के स्वामी विष्णु- भगवान्‌ की आराधना की ॥ ५१ ॥ इसके बाद उन्होंने उचित समयपर ऋत्विजोंको वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलङ्कृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं ॥ ५२ ॥ इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञाङ्ग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये ह्रदमेंरामह्रदमें स्नान किया ॥ ५३ ॥ स्नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदीजनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री- पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृञ्जय आदि देशोंके राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणोंको विदाई के रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥ ५५-५६ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान्‌ व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोडक़र जानेमें अत्यन्त विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहाद्र्र चित्तसे यदुवंशियोंका आलिङ्गन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ॥ ५७-५८ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम- परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकडक़र कहा ॥ ६० ॥

वसुदेवजीने कहाभाईजी ! भगवान्‌ने मनुष्योंके लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोडऩेमें असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम मित्रताका व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियोंका तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे ॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्तिके नशेसेश्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते ॥ ६३ ॥ दूसरोंको सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिलेइसीमें उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोंतकको नहीं देख पाता ॥ ६४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ॥ ६५ ॥ नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये। यदुवंशियोंने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६ ॥ इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया ॥ ६७ ॥ वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियोंने अलग- अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना हुए ॥ ६८ ॥ नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की ॥ ६९ ॥

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगोंसे वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसङ्गों को कह सुनाया ॥ ७१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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