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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर
तक आठ गुरुओं की कथा
श्रीभगवानुवाच
यदात्थ
मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे
ब्रह्मा
भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकाङ्क्षिणः १
मया
निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः
यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन
ब्रह्मणार्थितः २
कुलं
वै शापनिर्दग्धं नङ्क्ष्यत्यन्योन्यविग्रहात्
समुद्रः!
सप्तमे ह्येनां पुरीं च प्लावयिष्यति ३
यर्ह्येवायं
मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमङ्गलः
भविष्यत्यचिरात्साधो
कलिनापि निराकृतः ४
न
वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले
जनोऽधर्मरुचिर्भद्र
भविष्यति कलौ युगे ५
त्वं
तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबन्धुषु
मय्यावेश्य
मनः संयक्समदृग्विचरस्व गाम् ६
यदिदं
मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः
नश्वरं
गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् ७
पुंसोऽयुक्तस्य
नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक्
कर्माकर्मविकर्मेति
गुणदोषधियो भिदा ८
तस्माद्युक्तेन्द्रियग्रामो
युक्तचित्त इदं जगत्
आत्मनीक्षस्व
विततमात्मानं मय्यधीश्वरे ९
ज्ञानविज्ञानसंयुक्त
आत्मभूतः शरीरिणाम्
अत्मानुभवतुष्टात्मा
नान्तरायैर्विहन्यसे १०
दोषबुद्ध्योभयातीतो
निषेधान्न निवर्तते
गुणबुद्ध्या
च विहितं न करोति यथार्भकः ११
सर्वभूतसुहृच्छान्तो
ज्ञानविज्ञाननिश्चयः
पश्यन्मदात्मकं
विश्वं न विपद्येत वै पुनः १२
श्रीशुक
उवाच
इत्यादिष्टो
भगवता महाभागवतो नृप
उद्धवः
प्रणिपत्याह तत्त्वं जिज्ञासुरच्युतम् १३
श्रीउद्धव
उवाच
योगेश
योगविन्यास योगात्मन्योगसम्भव
निःश्रेयसाय
मे प्रोक्तस्त्यागः सन्न्यासलक्षणः १४
त्यागोऽयं
दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः
सुतरां
त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः १५
सोऽहं
ममाहमिति मूढमतिर्विगाढः
त्वन्मायया
विरचितात्मनि सानुबन्धे
तत्त्वञ्जसा
निगदितं भवता यथाहं
संसाधयामि
भगवन्ननुशाधि भृत्यम् १६
सत्यस्य
ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं
वक्तारमीश
विबुधेष्वपि नानुचक्षे
सर्वे
विमोहितधियस्तव माययेमे
ब्रह्मादयस्तनुभृतो
बहिरर्थभावाः १७
तस्माद्भवन्तमनवद्यमनन्तपारं
सर्वज्ञमीश्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम्
निर्विण्णधीरहमु
ह वृजिनाभितप्तो
नारायणं
नरसखं शरणं प्रपद्ये १८
भगवान् श्रीकृष्ण ने
कहा—महाभाग्यवान् उद्धव ! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है,
मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा,
शङ्कर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके
लोकोंमें होकर अपने धामको चला जाऊँ ॥ १ ॥ पृथ्वीपर देवताओंका जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी कामके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैं
बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुआ था ॥ २ ॥ अब यह यदुवंश,
जो ब्राह्मणोंके शापसे भस्म हो चुका है,
पारस्परिक फूट और युद्धसे नष्ट हो जायगा। आजके सातवें दिन समुद्र
इस पुरी-द्वारकाको डुबो देगा ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मत्र्यलोकका
परित्याग कर दूँगा, उसी
क्षण इसके सारे मङ्गल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनोंमें पृथ्वीपर कलियुगका
बोलबाला हो जायगा ॥ ४ ॥ जब मैं इस पृथ्वीका त्याग कर दूँ,
तब तुम इसपर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव ! कलियुगमें अधिकांश लोगोंकी रुचि अधर्ममें ही
होगी ॥ ५ ॥ अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवोंका स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो
और अनन्यप्रेमसे मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टिसे पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरण करो ॥
६ ॥ इस जगत्में जो कुछ मनसे सोचा जाता है,
वाणीसे कहा जाता है, नेत्रोंसे देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियोंसे अनुभव किया जाता
है, वह सब नाशवान् है। सपनेकी तरह मनका विलास है। इसलिये मायामात्र है, मिथ्या है—ऐसा समझ लो ॥ ७ ॥ जिस पुरुषका मन अशान्त है, असंयत है, उसीको पागलकी तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तवमें यह चित्तका भ्रम ही है। नानात्वका भ्रम हो जानेपर ही ‘यह
गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकारकी कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धिमें गुण और
दोषका भेद बैठ गया है, दृढ़मूल
हो गया है, उसीके लिये कर्म [1] अकर्म [2] और विकर्मरूप [3] भेदका प्रतिपादन हुआ है ॥ ८ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त
इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथमें ले लो और केवल इन्द्रियोंको ही नहीं, चित्तकी समस्त वृत्तियोंको भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह
सारा जगत् अपने आत्मामें ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत
ब्रह्मसे एक है, अभिन्न है ॥ ९ ॥ जब वेदोंके मुख्य तात्पर्य—निश्चयरूप ज्ञान और
अनुभवरूप विज्ञानसे भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्माके अनुभव में ही
आनन्दमग्र रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियोंके आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी
भी विघ्रसे तुम पीडित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करनेवालों की आत्मा भी तुम्हीं होगे ॥
१० ॥ जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धिसे अतीत हो जाता है,
वह बालक के समान निषिद्ध कर्मसे निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धिसे नहीं। वह विहित कर्मका अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धिसे नहीं ॥ ११ ॥ जिसने श्रुतियोंके तात्पर्यका
यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल
निश्चयसे सम्पन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियोंका हितैषी सुहृद् होता है और उसकी वृत्तियाँ
सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्वको मेरा ही स्वरूप—आत्मस्वरूप
देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पडऩा पड़ता ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आदेश दिया,
तब भगवान्के परम प्रेमी उद्धवजीने उन्हें प्रणाम करके
तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिकी इच्छासे यह प्रश्र किया ॥ १३ ॥
उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप ही समस्त
योगियोंकी गुप्त पूँजी योगोंके कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगोंके आधार, उनके कारण और योगस्वरूप भी हैं। आपने मेरे परम- कल्याणके लिये उस
संन्यासरूप त्यागका उपदेश किया है ॥ १४ ॥ परन्तु अनन्त ! जो लोग विषयोंके चिन्तन
और सेवनमें घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओंका त्याग अत्यन्त कठिन है।
सर्वस्वरूप ! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं,
उनके लिये तो इस प्रकारका त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा
निश्चय है ॥ १५ ॥ प्रभो ! मैं भी ऐसा ही हूँ;
मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भावसे मैं आपकी मायाके खेल,
देह और देहके सम्बन्धी स्त्री,
पुत्र, धन
आदिमें डूब रहा हूँ। अत: भगवन् ! आपने जिस संन्यासका उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवकको इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक
उसका साधन कर सकूँ ॥ १६ ॥ मेरे प्रभो ! आप भूत,
भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंसे अबाधित,
एकरस सत्य हैं। आप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्मस्वरूप हैं। प्रभो ! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्वका
उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओंमें भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने
बड़े-बड़े देवता हैं, वे
सब शरीराभिमानी होनेके कारण आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि मायाके
वशमें हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियोंसे अनुभव किये जानेवाले बाह्य
विषयोंको सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ॥ १७ ॥ भगवन् !
इसीसे चारों ओरसे दु:खोंकी दावाग्रिसे जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरणमें आया
हूँ। आप निर्दोष देश-कालसे अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठ- लोक के निवासी एवं नर के नित्य
सखा नारायण हैं। (अत: आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ॥ १८ ॥
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[1] विहित कर्म।
[2] विहित कर्मका लोप।
[3] निषिद्ध कर्म।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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