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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर
तक आठ गुरुओं की कथा
श्रीभगवानुवाच
प्रायेण
मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणाः
समुद्धरन्ति
ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् १९
आत्मनो
गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः
यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यां
श्रेयोऽसावनुविन्दते २०
पुरुषत्वे
च मां धीराः साङ्ख्ययोगविशारदाः
आविस्तरां
प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् २१
एकद्वित्रिचतुष्पादो
बहुपादस्तथापदः
बह्व्यः
सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया २२
अत्र
मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम्
गृह्यमाणैर्गुणैर्लिङ्गैरग्राह्यमनुमानतः
२३
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम्
अवधूतस्य
संवादं यदोरमिततेजसः २४
अवधूतं
द्विजं कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम्
कविं
निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित् २५
श्रीयदुरुवाच
कुतो
बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तुः सुविशारदा
यामासाद्य
भवाँल्लोकं विद्वाँश्चरति बालवत् २६
प्रायो
धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवाः
हेतुनैव
समीहन्त आयुषो यशसः श्रियः २७
त्वं
तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः
न
कर्ता नेहसे किञ्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् २८
जनेषु
दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना
न
तप्यसेऽग्निना मुक्तो गङ्गाम्भःस्थ इव द्विपः २९
त्वं
हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्
ब्रूहि
स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ३०
श्रीभगवानुवाच
यदुनैवं
महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा
पृष्टः
सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ३१
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धव !
संसारमें जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ?’ इत्यादि बातोंका विचार करनेमें निपुण हैं,
वे चित्तमें भरी हुई अशुभ वासनाओंसे अपने- आपको स्वयं अपनी
विवेकशक्तिसे ही प्राय: बचा लेते हैं ॥ १९ ॥ समस्त प्राणियोंका विशेषकर मनुष्यका
आत्मा अपने हित और अहितका उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और
अनुमानके द्वारा अपने हित-अहितका निर्णय करनेमें पूर्णत: समर्थ है ॥ २० ॥
सांख्ययोगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनिमें इन्द्रियशक्ति, मन:शक्ति आदिके आश्रयभूत मुझ आत्मतत्त्वको पूर्णत: प्रकटरूपसे
साक्षात्कार कर लेते हैं ॥ २१ ॥ मैंने एक पैरवाले,
दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चारसे अधिक पैरवाले और बिना पैरके—इत्यादि अनेक प्रकारके शरीरोंका
निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्यका ही शरीर है ॥ २२ ॥ इस
मनुष्य-शरीरमें एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले
हेतुओंसे जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमानसे अग्राह्य अर्थात् अहङ्कार आदि विषयोंसे भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक
ईश्वरको साक्षात् अनुभव करते हैं [*] ॥ २३ ॥ इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह
इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदुके संवादके रूपमें है ॥ २४ ॥ एक
बार धर्मके मर्मज्ञ राजा यदुने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण
निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया॥२५॥
राजा यदुने पूछा—ब्रह्मन् ! आप कर्म
तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई ? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होनेपर भी बालकके समान संसारमें
विचरते रहते हैं ॥ २६ ॥ ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु,
यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदिकी अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम
अथवा तत्त्व-जिज्ञासामें प्रवृत्त होते हैं;
अकारण कहीं किसीकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ॥ २७ ॥ मैं देख रहा
हूँ कि आप कर्म करनेमें समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है।
आपकी वाणीसे तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड़,
उन्मत्त अथवा पिशाचके समान रहते हैं;
न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ॥ २८ ॥ संसारके अधिकांश लोग
काम और लोभके दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप
मुक्त हैं, आपतक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती;
ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वनमें दावाग्रि लगनेपर उससे छूटकर
गङ्गाजल में खड़ा हो ॥ २९ ॥ ब्रह्मन् ! आप पुत्र,
स्त्री, धन आदि संसारके स्पर्शसे भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल
स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मामें
ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव कैसे होता है ?
आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ॥ ३० ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धव !
हमारे पूर्वज महाराज यदुकी बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदयमें ब्राह्मण-भक्ति थी।
उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजीका अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्र पूछा और बड़े
विनम्रभावसे सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजीने कहा ॥ ३१ ॥
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[*] अनुसंधानके दो प्रकार हैं (१) एक स्वप्रकाश तत्त्वके बिना बुद्धि
आदि जड पदार्थोंका प्रकाश नहीं हो सकता। इस प्रकार अर्थापत्तिके द्वारा और (२)
जैसे बसीला आदि औजार किसी कर्ताके द्वारा प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार यह बुद्धि
आदि औजार किसी कर्ताके द्वारा ही प्रयुक्त हो रहे हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं
है कि आत्मा आनुमानिक है। यह तो देहादिसे विलक्षण त्वं पदार्थके शोधनकी युक्तिमात्र
है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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