॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अवधूतोपाख्यान—कुरर से लेकर भृंगी तक
सात गुरुओं की कथा
एको
नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य
कालकलया कल्पान्त इदमीश्वरः ॥ १६ ॥
एक एवाद्वितीयोऽभूत् आत्माधारोऽखिलाश्रयः ।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ १७ ॥
परावराणां परम,
आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।
केवलानुभवानन्द सन्दोहो निरुपाधिकः ॥ १८ ॥
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।
सङ्क्षोभयन् सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥ १९ ॥
तामाहुः त्रिगुणव्यक्तिं सृजन्तीं विश्वतोमुखम्
।
यस्मिन् प्रोतम् इदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥
२० ॥
यथोर्णनाभिः हृदयाद् ऊर्णां सन्तत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥ २१
॥
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्
तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥
कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥ २३
॥
एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं श्रृणु मे वदतः
प्रभो ॥ २४ ॥
देहो
गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुः
बिभ्रत् स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।
तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि
पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसङ्गः ॥ २५ ॥
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्
पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितन्वन् ।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः
सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा ॥ २६ ॥
जिह्वैकतोऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिः
बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ २७ ॥
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या
वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ २८ ॥
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यावन्
निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ २९ ॥
एवं
सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।
विचरामि महीमेतां मुक्तसङ्गोऽनहङ्कृतिः ॥ ३० ॥
न ह्येकस्मात् गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात्
सुपुष्कलम् ।
ब्रह्मैतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभिः ॥ ३१ ॥
श्रीभगवानुवाच -
इत्युक्त्वा
स यदुं विप्रः तमामन्त्र्य गभीरधीः ।
वन्दितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥
३२ ॥
अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥ ३३ ॥
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो।
सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान् ने पूर्वकल्पमें बिना किसी अन्य
सहायकके अपनी ही मायासे रचे हुए जगत् को कल्प के अन्तमें (प्रलयकाल उपस्थित
होनेपर) कालशक्तिके द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपनेमें लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदसे शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके
अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधारसे रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनोंके नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत्के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति कालके
प्रभावसे सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियोंको साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और
स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूपसे विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप
और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही
प्रभु केवल अपनी शक्ति कालके द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और
उससे पहले क्रियाशक्ति- प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप
महत्तत्त्व ही तीनों गुणोंकी पहली अभिव्यक्ति है,
वही सब प्रकार की सृष्टि का
मूल कारण है। उसीमें यह सारा विश्व, सूत में ताने-बानेकी तरह ओतप्रोत है और इसीके कारण जीवको
जन्म-मृत्युके चक्करमें पडऩा पड़ता है ॥ १६—२० ॥ जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुँहके
द्वारा जाला फैलाती है, उसीमें विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत्को अपनेमेंसे उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूपसे विहार करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं
॥ २१ ॥
राजन् ! मैंने भृङ्गी (बिलनी) कीड़े
से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेहसे ,
द्वेषसे अथवा भयसे भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसीमें लगा
दे तो उसे उसी वस्तुका स्वरूप प्राप्त हो जाता है ॥ २२ ॥ राजन् ! जैसे भृङ्गी एक
कीड़ेको ले जाकर दीवारपर अपने रहनेकी जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भयसे उसीका
चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीरका त्याग किये बिना ही उसी शरीरसे तद्रूप हो जाता
है [*] ॥
२३ ॥
राजन् ! इस प्रकार मैंने इतने
गुरुओंसे ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्यकी शिक्षा देता है। मरना और जीना
तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है कि दु:ख-पर-दु:ख
भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीरसे तत्त्वविचार करनेमें सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता;
सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे।
इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ॥ २५ ॥ जीव जिस शरीरका प्रिय करनेके लिये
ही अनेकों प्रकारकी कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओंका विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषणमें लगा
रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसञ्चय करता है। आयुष्य पूरी होनेपर वही शरीर
स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्षके समान दूसरे शरीरके लिये बीज बोकर उसके लिये भी दु:ख की
व्यवस्था कर जाता है ॥ २६ ॥ जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर
खींचती हैं, वैसे ही जीवको जीभ एक ओर—स्वादिष्ट पदार्थोंकी ओर खींचती है तो
प्यास दूसरी ओर—जलकी ओर; जननेन्द्रिय एक ओर—स्त्रीसंभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर—कोमल स्पर्श,
भोजन और मधुर शब्दकी ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध
सूँघनेके लिये ले जाना चाहती है तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखनेके
लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ॥
२७ ॥ वैसे तो भगवान् ने अपनी अचिन्त्य
शक्ति मायासे वृक्ष, सरीसृप
(रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस
और मछली आदि अनेकों प्रकारकी योनियाँ रचीं;
परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धिसे युक्त है, जो ब्रह्मका साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत
आनन्दित हुए ॥ २८ ॥ यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे
लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थकी प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मोंके बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्र-से- शीघ्र,
मृत्युके पहले ही मोक्ष-प्राप्तिका प्रयत्न कर ले। इस जीवनका मुख्य
उद्देश्य मोक्ष ही है। विषयभोग तो सभी योनियोंमें प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥ २९ ॥
राजन् ! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया। मेरे हृदयमें
ज्ञान-विज्ञानकी ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं
अहङ्कार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीमें विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥ राजन् !
अकेले गुरुसे ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता,
उसके लिये अपनी बुद्धिसे भी बहुत-कुछ सोचने-समझनेकी आवश्यकता है।
देखो ! ऋषियोंने एक ही अद्वितीय ब्रह्मका अनेकों प्रकारसे गान किया है। (यदि तुम
स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूपको कैसे जान सकोगे ?) ॥ ३१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्यारे
उद्धव ! गम्भीर-बुद्धि अवधूत दत्तात्रेयने राजा यदुको इस प्रकार उपदेश किया। यदुने
उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार
गये ॥ ३२ ॥ हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात
सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें
भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके
समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥३३ ॥
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[*] जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीरसे तो
कहना ही क्या है? इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु
का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही
चिन्तन करना चाहिये।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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