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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता
का निरूपण
मयोदितेष्ववहितः
स्वधर्मेषु मदाश्रयः
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा
समाचरेत् १
अन्वीक्षेत
विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्
गुणेषु
तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् २
सुप्तस्य
विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः
नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा
भेदात्मधीर्गुणैः ३
निवृत्तं
कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्
जिज्ञासायां
सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ४
यमानभीक्ष्णं
सेवेत नियमान्मत्परः क्वचित्
मदभिज्ञं
गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ५
अमान्यमत्सरो
दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्
६
जायापत्यगृहक्षेत्र
स्वजनद्रविणादिषु
उदासीनः
समं पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मनः ७
विलक्षणः
स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक्
यथाग्निर्दारुणो
दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः ८
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं
तत्कृतान्गुणान्
अन्तः
प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्परः ९
योऽसौ
गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि
संसारस्तन्निबन्धोऽयं
पुंसो विद्याच्छिदात्मनः १०
तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मस्थं
केवलं परम्
सङ्गम्य
निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ११
आचार्योऽरणिराद्यः
स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः
तत्सन्धानं
प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः १२
वैशारदी
सातिविशुद्धबुद्धि-
र्धुनोति
मायां गुणसम्प्रसूताम्
गुणांश्च
सन्दह्य यदात्ममेत-
त्स्वयं
च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः १३
अथैषां
कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः
नानात्वमथ
नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् १४
मन्यसे
सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा
तत्तदाकृतिभेदेन
जायते भिद्यते च धीः १५
एवमप्यङ्ग
सर्वेषां देहिनां देहयोगतः
कालावयवतः
सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत् १६
तत्रापि
कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते
भोक्तुश्च
दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत् १७
न
देहिनां सुखं किञ्चिद्विद्यते विदुषामपि
तथा
च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम् १८
यदि
प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः
तेऽप्यद्धा
न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा १९
कोऽन्वर्थः
सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके
आघातं
नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः २०
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे
उद्धव ! साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण
में रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे
पालन करे। साथ ही जहाँ तक उनसे विरोध न हो
वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ॥ १ ॥ निष्काम
होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार
करे कि जगत्के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते
हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दु:ख ॥ २ ॥ इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये
कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन
अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है।
वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण
पूर्ववत् असत्य ही है ॥ ३ ॥ जो पुरुष मेरी शरणमें है,
उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन
कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये,
जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा
जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ॥ ४ ॥
अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये,
परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और
आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और
नियमोंके पालनसे भी बढक़र आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों,
मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ॥ ५ ॥ शिष्य को अभिमान न करना
चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे—किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल
हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो,
गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे
सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये
रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे ॥ ६ ॥ जिज्ञासुका परम धन
है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और
किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे,
उदासीन रहे ॥ ७ ॥ उद्धव ! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और
प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि
पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर
दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं
स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य,
एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता
है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ॥ ८ ॥ जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश,
बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है।
परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा
अपनेको शरीर मान लेता है, तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है
॥ ९ ॥ ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका
निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके
जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको
जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके
स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ॥ १० ॥ प्यारे उद्धव ! इस
जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं,
केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त
प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार
नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है, उसे क्रमश: मिटा देना चाहिये ॥ ११ ॥ (यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके
अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकडिय़ाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता
है; वैसे ही) विद्यारूप अग्नि की उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो
नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्रि प्रज्वलित
होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य
सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे
गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब
आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती,
तब वह ज्ञानाग्रि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो
जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है [*]
॥ १२-१३ ॥
प्यारे उद्धव ! यदि तुम कदाचित्
कर्मोंके कर्ता और सुख-दुखोंके भोक्ता जीवोंको अनेक तथा जगत्, काल, वेद
और आत्माओंको नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थोंकी स्थिति प्रवाहसे नित्य और यथार्थ स्वीकार
करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियोंके भेदसे उनके अनुसार ज्ञान
ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके माननेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार
जगत्के कर्ता आत्माकी नित्य सत्ता और जन्म-मृत्युके चक्करसे मुक्ति भी सिद्ध न हो
सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवोंके
सम्बन्धसे होनेवाली जीवोंकी जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होनेके कारण दूर न हो
सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और कालकी नित्यता स्वीकार करते हो। इसके
सिवा, यहाँ भी कर्मोंका कर्ता तथा सुख-दु:खका भोक्ता जीव परतन्त्र ही
दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दु:खका फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोगकी समस्या सुलझ जानेपर भी दु:ख- भोगकी समस्या तो
उलझी ही रहेगी। अत: इस मतके अनुसार जीवको कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो
सकेगी । जब जीव स्वरूपत: परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह
स्वार्थ और परमार्थ दोनोंसे ही वञ्चित रह जायगा ॥ १४—१७ ॥ (यदि यह कहा जाय कि जो
भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दु:ख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक
नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी
कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दु:खसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग
अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं,
उनका वह अभिमान व्यर्थ है ॥ १८ ॥ यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे
लोग सुखकी प्राप्ति और दु:खके नाशका ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपायका पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही
नहीं ॥ १९ ॥ जब मृत्यु उनके सिरपर नाच रही है,
तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस
मनुष्यको फाँसीपर लटकानेके लिये वधस्थानपर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (अत: पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टिसे न सुख ही
सिद्ध होगा और न जीवका कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा) ॥ २० ॥
.............................................
[*] यहाँतक यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप नित्य एक
ही आत्मा है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म देहके कारण हैं। आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है, सब अनित्य और मायामय है; इसलिये आत्मज्ञान होते
ही समस्त विपत्तियोंसे मुक्ति मिल जाती है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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