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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता
का निरूपण
श्रुतं
च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः
बह्वन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि
निष्फलम् २१
अन्तरायैरविहितो
यदि धर्मः स्वनुष्ठितः
तेनापि
निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु २२
इष्ट्वेह
देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः
भुञ्जीत
देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान् २३
स्वपुण्योपचिते
शुभ्रे विमान उपगीयते
गन्धर्वैर्विहरन्मध्ये
देवीनां हृद्यवेषधृक् २४
स्त्रीभिः
कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना
क्रीडन्न
वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः २५
तावत्स
मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते
क्षीणपुण्यः
पतत्यर्वागनिच्छन्कालचालितः २६
यद्यधर्मरतः
सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः
कामात्मा
कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः २७
पशूनविधिनालभ्य
प्रेतभूतगणान्यजन्
नरकानवशो
जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः २८
कर्माणि
दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः
देहमाभजते
तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः २९
लोकानां
लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्
ब्रह्मणोऽपि
भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः ३०
गुणाः
सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्
जीवस्तु
गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ ३१
यावत्स्याद्गुणवैषम्यं
तावन्नानात्वमात्मनः
नानात्वमात्मनो
यावत्पारतन्त्र्यं तदैव हि ३२
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं
तावदीश्वरतो भयम्
य
एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ३३
काल
आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च
इति
मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ३४
श्रीउद्धव
उवाच
गुणेषु
वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः
गुणैर्न
बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो ३५
कथं
वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः
किं
भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ३६
एतदच्युत
मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर
नित्यबद्धो
नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रमः ३७
प्यारे उद्धव ! लौकिक सुखके समान
पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगनेवालों के प्रति असूया होती है—उनके गुणोंमें दोष
निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही
वहाँके सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते
हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँकी कामना पूर्ण होनेमें भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदिकी त्रुटियोंके कारण बड़े-बड़े विघ्नों की
सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदिके कारण नष्ट हो
जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते- होते विघ्नों के कारण नहीं मिल
पाता ॥ २१ ॥ यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाय, तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्तिका प्रकार मैं बतलाता हूँ,
सुनो ॥ २२ ॥ यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी आराधना
करके स्वर्गमें जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मोंके द्वारा उपाॢजत दिव्य भोगोंको
देवताओंके समान भोगता है ॥ २३ ॥ उसे उसके पुण्योंके अनुसार एक चमकीला विमान मिलता
है और वह उसपर सवार होकर सुर- सुन्दरियोंके साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके
गुणोंका गान करते हैं और उसके रूप- लावण्यको देखकर दूसरोंका मन लुभा जाता है ॥ २४ ॥
उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओंको गुञ्जारित करती
हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ
करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य
समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा ॥ २५ ॥ जबतक उसके पुण्य शेष रहते
हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना
पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ॥ २६ ॥
यदि कोई मनुष्य दुष्टोंकी संगतिमें
पडक़र अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियोंके वशमें होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेमें कृपणता करने लगे,
लम्पट हो जाय अथवा प्राणियोंको सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओंकी
बलि देकर भूत और प्रेतोंकी उपासनामें लग जाय,
तब तो वह पशुओंसे भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरकमें जाता
है। उसे अन्तमें घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थसे रहित अज्ञानमें ही भटकना पड़ता है ॥ २७-२८ ॥
जितने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं,
उनका फल दु:ख ही है। जो जीव शरीरमें अहंता-ममता करके उन्हींमें लग
जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती
है। ऐसी स्थितिमें मृत्युधर्मा जीवको क्या सुख हो सकता है ? ॥ २९ ॥ सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं;
क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित—केवल दो पराद्र्ध है ॥ ३० ॥
सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियोंको उनके कर्मोंमें प्रेरित करते
हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व,
रज आदि गुणों और इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके
किये हुए कर्मोंका फल सुख-दु:ख भोगने लगता है ॥ ३१ ॥ जबतक गुणोंकी विषमता है
अर्थात् शरीरादिमें मैं और मेरेपनका अभिमान है;
तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है,
तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ॥ ३२ ॥
जबतक परतन्त्रता है, तबतक
ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख
करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं,
उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ॥ ३३ ॥ प्यारे उद्धव ! जब
मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव
और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य
मैं आत्मा ही हूँ) ॥ ३४ ॥
उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! यह जीव देह
आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दु:ख आदि रूप
फलोंमें क्यों नहीं बँधता है ? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निॢलप्त है,
देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है,
फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है ?
॥ ३५ ॥ बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है,
कैसे भोजन करता है ? और मल-त्याग आदि कैसे करता है ?
कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?
॥ ३६ ॥ अच्युत ! प्रश्न का मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं।
इसलिये आप मेरे इस प्रश्रका उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे
नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असङ्ग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर
मुझे भ्रम हो रहा है ॥ ३७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे
भगवदुद्धवसंवादे
दशमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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