रविवार, 21 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

बद्ध, मुक्त और भक्तजनों  के लक्षण

 

श्रीभगवानुवाच

बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः

गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् १

शोकमोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया

स्वप्नो यथात्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी २

विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्

मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ३

एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते

बन्धोऽस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतरः ४

अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते

विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ५

सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ

यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे

एकस्तयोः खादति पिप्पलान्न-

मन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् ६

आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा-

नपिप्पलादो न तु पिप्पलादः

योऽविद्यया युक्स तु नित्यबद्धो

विद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः ७

देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थितः

अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग्यथा ८

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च

गृह्यमाणेष्वहं कुर्यान्न विद्वान्यस्त्वविक्रियः ९

दैवाधीने शरीरेऽस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा

वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते १०

एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने

दर्शनस्पर्शनघ्राण भोजनश्रवणादिषु

न तथा बध्यते विद्वान्तत्र तत्रादयन्गुणान् ११

प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः

वैशारद्येक्षयासङ्ग शितया छिन्नसंशयः

प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते १२

यस्य स्युर्वीतसङ्कल्पाः प्राणेन्द्रि यर्ननोधियाम्

वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणैः १४

यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किञ्चिद्यदृच्छया

अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः १५

न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा

वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः १६

न कुर्यान्न वदेत्किञ्चिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा

आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः १७

शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि

श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः १८

गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यां

देहं पराधीनमसत्प्रजां च

वित्तं त्वतीर्थीकृतमङ्ग वाचं

हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी १९

यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म

स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य

लीलावतारेप्सितजन्म वा स्या-

द्वन्ध्यां गिरं तां बिभृयान्न धीरः २०

एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि

उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे २१

यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्

मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर २२

श्रद्धालुर्मत्कथाः शृण्वन्सुभद्रा लोकपावनीः

गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहुः २३

मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपाश्रयः

लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने २४

सत्सङ्गलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता

स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् २५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण  ने कहा—प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकारकी व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्त्वादि गुणोंकी उपाधि से ही होता है। वस्तुत:—तत्त्वदृष्टिसे नहीं। सभी गुण मायामूलक हैं—इन्द्रजाल हैं—जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥ १ ॥ जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है—उसमें बिना हुए ही भासता है—मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दु:ख, शरीरकी उत्पत्ति और मृत्यु—यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होनेपर भी वास्तविक नहीं है ॥ २ ॥ उद्धव ! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव करानेवाली आत्मविद्या और बन्धनका अनुभव करानेवाली अविद्या—ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी मायासे ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है ॥ ३ ॥ भाई ! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान् हो, विचार करो—जीव तो एक ही है। वह व्यवहारके लिये ही मेरे अंशके रूपमें कल्पित हुआ है, वस्तुत: मेरा स्वरूप ही है। आत्मज्ञानसे सम्पन्न होनेपर उसे मुक्त कहते हैं और आत्माका ज्ञान न होनेसे बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होनेसे बन्धन भी अनादि कहलाता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार मुझ एक ही धर्मीमें रहनेपर भी जो शोक और आनन्दरूप विरुद्ध धर्मवाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीवका भेद मैं बतलाता हूँ ॥ ५ ॥ (वह भेद दो प्रकारका है—एक तो नित्यमुक्त ईश्वरसे जीवका भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीवका भेद। पहला सुनो)—जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्तके भेदसे भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही शरीरमें नियन्ता और नियन्त्रितके रूपसे स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदयका घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नामके दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होनेके कारण समान हैं और कभी न बिछुडऩेके कारण सखा हैं। इनके निवास करनेका कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होनेपर भी जीव तो शरीररूप वृक्षके फल सुख-दु:ख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दु:ख आदिसे असङ्ग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होनेपर भी ईश्वरकी यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामथ्र्य आदिमें भोक्ता जीवसे बढक़र है ॥ ६ ॥ साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत् को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूपको जानता है और न अपनेसे अतिरिक्त को ! इन दोनोंमें जीव तो अविद्यासे युक्त होनेके कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होनेके कारण नित्यमुक्त है ॥ ७ ॥ प्यारे उद्धव ! ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जानेपर जगा हुआ पुरुष स्वप्नके स्मर्यमाण शरीरसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूलशरीरमें रहनेपर भी उनसे किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तवमें शरीरसे कोई सम्बन्ध न रखनेपर भी अज्ञानके कारण शरीरमें ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखनेवाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीरमें बँध जाता है ॥ ८ ॥ व्यवहारादिमें इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुणको ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिये जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूपको समझ लिया है, वह उन विषयोंके ग्रहण-त्यागमें किसी प्रकारका अभिमान नहीं करता ॥ ९ ॥ यह शरीर प्रारब्धके अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणोंकी प्रेरणासे ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपनेको उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मोंका कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमानके कारण वह बँध जाता है ॥ १० ॥

प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धतिसे विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयोंसे विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओंमें अपनेको कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणोंको ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मोंके कर्ता-भोक्ता हैं—ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलोंसे नहीं बँधते। वे प्रकृतिमें रहकर भी वैसे ही असङ्ग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदिसे आकाश, जलकी आद्र्रता आदिसे सूर्य और गन्ध आदिसे वायु। उनकी विमल बुद्धिकी तलवार असङ्ग-भावनाकी सानसे और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-सन्देहोंको काट-कूटकर फेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्नसे जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धिके भ्रमसे मुक्त हो जाते हैं ॥ ११—१३ ॥ जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी समस्त चेष्टाएँ बिना सङ्कल्पके होती हैं, वे देहमें स्थित रहकर भी उसके गुणोंसे मुक्त हैं ॥ १४ ॥ उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषोंके शरीरको चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोगसे पूजा करने लगे—वे न तो किसीके सतानेसे दुखी होते हैं और न पूजा करनेसे सुखी ॥ १५ ॥ जो समदर्शी महात्मा गुण और दोषकी भेददृष्टिसे ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवालेकी स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवालेकी निन्दा; न वे किसीकी अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिडक़ते ही हैं ॥ १६ ॥ जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहारमें अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्दमें ही मग्र रहते हैं और जडके समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ॥ १७ ॥

प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदोंका तो पारगामी विद्वान् हो, परन्तु परब्रह्मके ज्ञानसे शून्य हो, उसके परिश्रमका कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूधकी गायका पालनेवाला ॥ १८ ॥ दूध न देनेवाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्रके प्राप्त होनेपर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणोंसे रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओंकी रखवाली करनेवाला दु:ख- पर-दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १९ ॥ इसलिये उद्धव ! जिस वाणीमें जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीलाका वर्णन न हो और लीलावतारोंमें भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारोंका जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि ऐसी वाणीका उच्चारण एवं श्रवण न करे ॥ २० ॥

प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचारके द्वारा आत्मामें जो अनेकताका भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मामें अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसारके व्यवहारोंसे उपराम हो जाय ॥ २१ ॥ यदि तुम अपना मन परब्रह्ममें स्थिर न कर सको, तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ॥ २२ ॥ मेरी कथाएँ समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धाके साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओंका गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये ॥ २३ ॥ मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थका सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुषके प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ २४ ॥ भक्तिकी प्राप्ति सत्सङ्गसे होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपदको—वास्तविक स्वरूप को सहज ही में प्राप्त हो जाता है ॥ २५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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