शुक्रवार, 19 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अवधूतोपाख्यान—कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा

 

श्रीब्राह्मण उवाच -

परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत् प्रियतमं नृणाम् ।

अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चनः ॥ १ ॥

 सामिषं कुररं जघ्नुः बलिनो ये निरामिषाः ।

 तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥ २ ॥

 न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।

 आत्मक्रीड आत्मरतिः विचरामीह बालवत् ॥ ३ ॥

 द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।

 यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः ॥ ४ ॥

 क्वचित् कुमारी त्वात्मानं वृणानान् गृहमागतान् ।

 स्वयं तान् अर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ॥ ५ ॥

 तेषम् अभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव ।

 अवघ्नन्त्याः प्रकोष्ठस्थाः चक्रुः शङ्खाः स्वनं महत् ॥ ६ ॥

 सा तत् जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः ।

 बभञ्जैकैकशः शङ्खान् द्वौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥ ७ ॥

 उभयोरप्यभूद् घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शंखयोः ।

 तत्राप्येकं निरभिदद् एकस्मात् नाभवद् ध्वनिः ॥ ८ ॥

 अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।

 लोकान् अनुचरन् एतान् लोकतत्त्वविवित्सया ॥ ९ ॥

 वासे बहूनां कलहो भवेत् वार्ता द्वयोरपि ।

 एक एव चरेत् तस्मात् कुमार्या इव कङ्कणः ॥ १० ॥

 मन एकत्र संयुञ्ज्यात् जितश्वासो जितासनः ।

 वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतन्द्रितः ॥ ११ ॥

यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेतत्

     शनैः शनैः मुञ्चति कर्मरेणून् ।

 सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च

     विधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥ १२ ॥

तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो

     न वेद किञ्चिद् बहिरन्तरं वा ।

 यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्तं

     इषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ १३ ॥

एकचार्यनिकेतः स्याद् , अप्रमत्तो गुहाशयः ।

 अलक्ष्यमाण आचारैः मुनिरेकोऽल्पभाषणः ॥ १४ ॥

 गृहारम्भोऽतिदुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः ।

 सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १५ ॥

 

अवधूत दत्तात्रेयजीने कहा—राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दु:खका कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चनभाव से रहता है—शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीननेके लिये उसे घेरकर चोंच मारने लगे। जब कुरर पक्षीने अपनी चोंचसे मांसका टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥ २ ॥

मुझे मान या अपमानका कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालों को जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालकसे ली है। अत: उसीके समान मैं भी मौजसे रहता हूँ ॥ ३ ॥ इस जगत्में दो ही प्रकारके व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्दमें मग्र रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥ ४ ॥

एक बार किसी कुमारी कन्याके घर उसे वरण करनेके लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घरके लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया ॥ ५ ॥ राजन् ! उनको भोजन करानेके लिये वह घरके भीतर एकान्तमें धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाईमें पड़ी शंखकी चूडिय़ाँ जोर-जोरसे बज रही थीं ॥ ६ ॥ इस शब्दको निन्दित समझकर कुमारीको बड़ी लज्जा मालूम हुई [*] और उसने एक-एक करके सब चूडिय़ाँ तोड़ डाली और दोनों हाथोंमें केवल दो-दो चूडिय़ाँ रहने दीं ॥ ७ ॥ अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूडिय़ाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयोंमें केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकारकी आवाज नहीं हुई ॥ ८ ॥ रिपुदमन ! उस समय लोगोंका आचार-विचार निरखने-परखनेके लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्याकी चूड़ीके समान अकेले ही विचरना चाहिये ॥ ९-१० ॥

राजन् ! मैंने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है कि आसन और श्वासको जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मनको वशमें कर ले और फिर बड़ी सावधानीके साथ उसे एक लक्ष्यमें लगा दे ॥ ११ ॥ जब परमानन्दस्वरूप परमात्मामें मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओंकी धूलको धो बहाता है। सत्त्वगुणकी वृद्धिसे रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंका त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे र्ईंधनके बिना अग्रि ॥ १२ ॥ इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मामें ही स्थिर—निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसे पतातक न चला ॥ १३ ॥

राजन् ! मैंने साँपसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सर्पकी भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थानमें न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदिमें पड़ा रहे, बाहरी आचारोंसे पहचाना न जाय। किसीसे सहायता न ले और बहुत कम बोले ॥ १४ ॥ इस अनित्य शरीरके लिये घर बनानेके बखेड़ेमें पडऩा व्यर्थ और दु:खकी जड़ है। साँप दूसरोंके बनाये घरमें घुसकर बड़े आरामसे अपना समय काटता है ॥ १५ ॥

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[*] क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्योतक था।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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