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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
परमार्थ-निरूपण
श्रीभगवानुवाच
-
परस्वभावकर्माणि
न प्रशंसेन्न गहयेत् ।
विश्वमेकात्मकं
पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १ ॥
परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति ।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थाद् असत्यभिनिवेशतः ॥ २ ॥
तैजसे निद्रयाऽऽपन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः ।
मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वत् नानार्थदृक्
पुमान् ॥ ३ ॥
किं भद्रं किं अभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत्
।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥ ४ ॥
छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसन्तोऽप्यर्थकारिणः ।
एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् ॥ ५ ॥
आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः ।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥
६ ॥
तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मात् अन्यो भावो
निरूपितः ।
निरूपितेऽयं त्रिविधा निर्मूल भातिरात्मनि ।
इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम् ॥ ७ ॥
एतद् विद्वान् मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम् ।
न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत् ॥ ८ ॥
प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा ।
आद्यन्तवत् असज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह ॥ ९
॥
श्रीउद्धव उवाच -
नैवात्मनो न
देहस्य संसृतिर्द्रष्टृदृश्ययोः ।
अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते ॥ १० ॥
आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः ।
अग्निवद्दारुवद् अचिद् देहः कस्येह संसृतिः ॥ ११
॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी
! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत्
जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान- स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये
और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये ॥ १ ॥ जो पुरुष दूसरोंके स्वभाव और
उनके कर्मोंकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं,
वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधनसे च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धिका
निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती हैं ॥
२ ॥ उद्धवजी ! सभी इन्द्रियाँ राजस अहङ्कारके कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती
हैं, तब शरीरका अभिमानी जीव चेतना- शून्य हो जाता है अर्थात् उसे बाहरी
शरीरकी स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा,
तब तो वह सपनेके झूठे दृश्योंमें भटकने लगता है और वह भी लीन हो
गया, तब तो जीव मृत्युके समान गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें लीन हो जाता है।
वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूपको भूलकर नाना वस्तुओंका दर्शन करने लगता
है, तब वह स्वप्नके समान झूठे दृश्योंमें फँस जाता है अथवा मृत्युके
समान अज्ञानमें लीन हो जाता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं
है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी,
अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्र ही नहीं उठ सकता। विश्वकी
सभी वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं अथवा मनसे सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होनेके कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही
है ॥ ४ ॥ परछार्ईं, प्रतिध्वनि
और सीपी आदिमें चाँदी आदिके आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्यके हृदयमें भय-कम्प आदिका सञ्चार हो जाता
है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही,
परन्तु जबतक ज्ञानके द्वारा इनकी असत्यताका बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती,
तबतक ये भी अज्ञानियोंको भयभीत करती रहती हैं ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! जो
कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है। जो कुछ विश्व-सृष्टि
प्रतीत हो रही है, इसका
वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान् ही इसका
संहार करते हैं और जिसका संहार होता है , वह भी वे ही हैं ॥ ६ ॥ अवश्य ही व्यवहारदृष्टिसे देखनेपर आत्मा इस
विश्वसे भिन्न है; परन्तु
आत्मदृष्टिसे उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत
हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो
केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामें सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकारकी प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल
ही हैं। न होनेपर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्त्व,
रज और तमके कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदिकी
त्रिविधता मायाका खेल है ॥ ७ ॥ उद्धवजी ! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञानकी उत्तम
स्थितिका वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनोंका रहस्य जान लेता है, वह न तो किसीकी प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत्में सूर्यके
समान समभावसे विचरता रहता है ॥ ८ ॥ प्रत्यक्ष,
अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि यह जगत्
उत्पत्ति- विनाशशील होनेके कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत्में
असङ्गभावसे विचरना चाहिये ॥ ९ ॥
उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! आत्मा है द्रष्टा
और देह है दृश्य। आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड। ऐसी स्थितिमें
जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीरको हो सकता है और न आत्माको। परन्तु इसका होना भी
उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है ? ॥ १० ॥ आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणोंसे रहित,
शुद्ध, स्वयंप्रकाश
और सभी प्रकारके आवरणोंसे रहित है; तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्रिके समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठकी तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे ? ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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