॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
क्रियायोग का वर्णन
चन्दनोशीरकर्पूर
कुङ्कुमागुरुवासितैः ।
सलिलैः स्नापयेन्मन्त्रैः नित्यदा विभवे सति ॥
३० ॥
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया ।
पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः ॥ ३१ ॥
वस्त्रोपवीताभरण पत्रस्रग्गन्धलेपनैः ।
अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम् ॥ ३२
॥
पाद्यं आचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान् ।
धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः ॥ ३३
॥
गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान् ।
संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत् ॥ ३४ ॥
अभ्यङ्गोन्मर्दनादर्श दन्तधावाभिषेचनम् ।
अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्युरुतान्वहम् ॥ ३५
॥
विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः ।
अग्निमाधाय परितः समूहेत् पाणिनोदितम् ॥ ३६ ॥
परिस्तीर्याथ पर्युक्षेद् अन्वाधाय यथाविधि ।
प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ
भावयेत माम् ॥ ३७ ॥
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः ।
लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिञ्जल्कवाससम् ॥ ३८ ॥
स्फुरत्किरीटकटक कटिसूत्रवराङ्गदम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ३९
॥
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च ।
प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः
॥ ४१ ॥
जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोडशर्चावदानतः ।
धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रैः स्विष्टिकृतं
बुधः ॥ ४१ ॥
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत् ।
मूलमन्त्रं जपेद् ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम् ॥
४२ ॥
दत्त्वाऽऽचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत् ।
मुखवासं सुरभिमत् ताम्बूलाद्यमथाहयेत् ॥ ४३ ॥
उपगायन् गृणन् नृत्यन् कर्माणि अभिनयन् मम ।
मत्कथाः श्रावयन् श्रृण्वन् मुहूर्तं क्षणिको
भवेत् ॥ ४४ ॥
स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि
।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन् इति वन्देत दण्डवत् ॥ ४५
॥
शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम् ।
प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात् ॥
४६ ॥
इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम् ।
उद्वासयेद् चेद् उद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि
तत्पुनः ॥ ४७ ॥
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत्
।
सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहं अवस्थितः ॥ ४८
॥
एवं क्रियायोगपथैः पुमान्वैदिकतान्त्रिकैः ।
अर्चन् उभयतः सिद्धिं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम्
॥ ४९ ॥
मदर्चां सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेद् दृढम्
।
पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितान्
॥ ५० ॥
पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वथान्वहम् ।
क्षेत्रापणपुरग्रामान् दत्त्वा
मत्सार्ष्टितामियात् ॥ ५१ ॥
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्मना भुवनत्रयम् ।
पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात् ॥
५२ ॥
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।
भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम् ॥ ५३ ॥
यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः ।
वृत्तिं स जायते विड्भुग् वर्षाणां अयुतायुतम् ॥
५४ ॥
कर्तुश्च सारथेहेतोः अनुमोदितुरेव च ।
कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम् ॥ ५५
॥
प्रिय उद्धव ! यदि सामर्थ्य हो तो
प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओंद्वारा सुवासित जलसे मुझे स्नान
कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’, इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक,
‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि
पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि सामगायनका
पाठ भी करता रहे ॥ ३०-३१ ॥ मेरा भक्त वस्त्र,
यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध
और चन्दनादिसे प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृङ्गार करे ॥ ३२ ॥ उपासक श्रद्धाके साथ
मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप
आदि सामग्रियाँ समर्पित करे ॥ ३३ ॥ यदि हो सके तो गुड़,
खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यञ्जनोंका नैवेद्य लगावे ॥ ३४ ॥ भगवान् के
विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदिसे स्नान कराये,
सुगन्धित पदार्थोंका लेप करे,
दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वोंके अवसरपर
नाचने-गाने आदिका भी प्रबन्ध करे ॥ ३५ ॥
उद्धवजी ! तदनन्तर पूजाके बाद
शास्त्रोक्त विधिसे बने हुए कुण्डमें अग्रिकी स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदीसे शोभायमान हो। उसमें हाथकी हवासे अग्रि प्रज्वलित
करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे ॥ ३६ ॥ वेदीके चारों ओर कुशकण्डिका करके
अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उनपर जल छिडक़े। इसके बाद
विधिपूर्वक समिधाओंका आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्रिके उत्तर भागमें होमोपयोगी
सामग्री रखे और प्रोक्षणीपात्रके जलसे प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्रिमें मेरा इस
प्रकार ध्यान करे ॥ ३७ ॥ ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोनेके समान दम-दम दमक रही है।
रोम-रोमसे शान्तिकी वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं।
उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमलकी केसरके समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा
है ॥ ३८ ॥ सिरपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, कमरमें करधनी और बाँहोंमें बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्ष:स्थलपर
श्रीवत्सका चिह्न है। गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनोंतक वनमाला लटक रही
है’ ॥ ३९ ॥ अग्रिमें मेरी इस मूर्तिका ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी
समिधाओंको घृतमें डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आधार नामक दो-दो आहुतियोंसे और भी
हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियोंसे आहुति दे ॥ ४० ॥ इसके बाद
अपने इष्टमन्त्रसे अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तके
सोलह मन्त्रोंसे हवन करे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि धर्मादि देवताओंके लिये भी
विधिपूर्वक मन्त्रोंसे हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे ॥ ४१ ॥
इस प्रकार अग्रिमें अन्तर्यामीरूपसे
स्थित भगवान्की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द- सुनन्द आदि पार्षदोंको
आठों दिशाओंमें हवनकर्माङ्ग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमाके सम्मुख बैठकर
परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो
नारायणाय’ का जप करे ॥ ४२ ॥ इसके बाद भगवान्को आचमन करावे और उनका प्रसाद
विष्वक्सेनको निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेवकी सेवामें सुगन्धित ताम्बूल
आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥ ४३ ॥ मेरी लीलाओंको गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओंका अभिनय करे। यह सब करते समय
प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरोंको सुनावे। कुछ
समयतक संसार और उसके रगड़ों- झगड़ोंको भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय ॥ ४४ ॥
प्राचीन ऋषियोंके द्वारा अथवा प्राकृत भक्तोंके द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव
और स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों।
मुझे अपने कृपाप्रसादसे सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ ४५ ॥ अपना
सिर मेरे चरणोंपर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे—दायेंसे दाहिना और बायेंसे बायाँ
चरण पकडक़र कहे—‘भगवन् ! इस संसार-सागरमें मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा
पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये’ ॥
४६ ॥ इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदरके साथ अपने सिरपर रखे और
उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि
प्रतिमामेंसे एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योतिमें लीन हो गयी
है। बस, यही विसर्जन है ॥ ४७ ॥ उद्धवजी ! प्रतिमा आदिमें जब जहाँ श्रद्धा
हो तब तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियोंमें तथा अपने हृदयमें
भी स्थित हूँ ॥ ४८ ॥
उद्धवजी ! जो मनुष्य इस प्रकार
वैदिक, तान्ङ्क्षत्रक क्रियायोगके द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोकमें मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥
यदि शक्ति हो, तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा
स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलोंके बगीचे लगवा दे;
नित्यकी पूजा, पर्वकी यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवोंकी व्यवस्था कर दे ॥ ५० ॥ जो
मनुष्य पर्वोंके उत्सव और प्रतिदिनकी पूजा लगातार चलनेके लिये खेत, बाजार, नगर
अथवा गाँव मेरे नामपर समर्पित कर देते हैं,
उन्हें मेरे समान ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है ॥ ५१ ॥ मेरी मूर्तिकी
प्रतिष्ठा करनेसे पृथ्वीका एकच्छत्र राज्य,
मन्दिर-निर्माणसे त्रिलोकीका राज्य,
पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे ब्रह्मलोक और तीनोंके द्वारा मेरी
समानता प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ जो निष्कामभावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोगके
द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ५३ ॥ जो अपनी दी हुई या दूसरोंकी दी
हुई देवता और ब्राह्मणकी जीविका हरण कर लेता है,
वह करोड़ों वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ॥ ५४ ॥ जो लोग ऐसे
कामोंमें सहायता, प्रेरणा
अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरनेके बाद प्राप्त करनेवालेके समान ही फलके भागीदार होते
हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा, तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ॥ ५५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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