शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

क्रियायोग का वर्णन

 

श्रीउद्धव उवाच -

क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो ।

 यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ ॥ १ ॥

 एतद् वदन्ति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम् ।

 नारदो भगवान् व्यास आचार्योऽग्‌गिरसः सुतः ॥ २ ॥

 निःसृतं ते मुखाम्भोजाद् यदाह भगवानजः ।

 पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः ॥ ३ ॥

 एतद् वै सर्ववर्णानां आश्रमाणां च सम्मतम् ।

 श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद ॥ ४ ॥

 एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम् ।

 भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर ॥ ५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव ।

 सङ्‌क्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ ६ ॥

 वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः ।

 त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चरेत् ॥ ७ ॥

 यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः ।

 यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे ॥ ८ ॥

 अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजः ।

 द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया ॥ ९ ॥

 पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोऽङ्गशुद्धये ।

 उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद् ग्रहणादिना ॥ १० ॥

 सन्ध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।

 पूजां तैः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्मपावनीम् ॥ ११ ॥

 शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती ।

 मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ॥ १२ ॥

 चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम् ।

 उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने ॥ १३ ॥

 अस्थिरायां विकल्पः स्यात् स्थण्डिले तु भवेद् द्वयम् ।

 स्नपनं त्वविलेप्यायां अन्यत्र परिमार्जनम् ॥ १४ ॥

 द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः ।

 भक्तस्य च यथालब्धैः हृदि भावेन चैव हि ॥ १५ ॥

 स्नानालङ्करणं प्रेष्ठं अर्चायामेव तूद्धव ।

 स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः ॥ १६ ॥

 सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः ।

 श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि ॥ १७ ॥

 भूर्यप्यभक्तोपाहृतं न मे तोषाय कल्पते ।

 गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः ॥ १८ ॥

 शुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः ।

 आसीनः प्रागुदग् वार्चेद् अर्चायामथ सम्मुखः ॥ १९ ॥

 कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिनामृजेत् ।

 कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत् ॥ २० ॥

 तदद्‌भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च ।

 प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्‌भिः तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत् ॥ २१ ॥

 पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः ।

 हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत् ॥ २२ ॥

 पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम ।

 अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् नादान्ते सिद्धभाविताम् ॥ २३ ॥

 तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः ।

 आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताङ्गं मां प्रपूजयेत् ॥ २४ ॥

 पाद्योपस्पर्शाहणादीन् उपचारान् प्रकल्पयेत् ।

 धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम ॥ २५ ॥

 पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम् ।

 उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये ॥ २६ ॥

 सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान् ।

 मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत् ॥ २७ ॥

 नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च ।

 महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम् ॥ २८ ॥

 दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून् सुरान् ।

 स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान् पूजयेत् प्रोक्षणादिभिः ॥ २९ ॥

 

उद्धवजीने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ! जिस क्रियायोगका आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकारसे जिस उद्देश्यसे आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोगका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ देवर्षि नारद, भगवान्‌ व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोगके द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्योंके परम कल्याणकी साधना है ॥ २ ॥ यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्दसे ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियोंको और भगवान्‌ शङ्करने अपनी अद्र्धाङ्गिनी भगवती पार्वतीजीको उपदेश किया था ॥ ३ ॥ मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमोंके लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादिके लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है ॥ ४ ॥ कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणोंका प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धनसे मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ॥ ५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! कर्मकाण्डका इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़ेमें ही पूर्वापर-क्रमसे विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥ मेरी पूजाकी तीन विधियाँ हैं— वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनोंमेंसे मेरे भक्तको जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधिसे मेरी आराधना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधिसे समयपर यज्ञोपवीत-संस्कारके द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्तिके साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो ॥ ८ ॥ भक्तिपूर्वक निष्कपट भावसे अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्माका पूजाकी सामग्रियोंके द्वारा मूर्तिमें , वेदीमें, अग्रिमें, सूर्यमें, जलमें, हृदयमें अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसीमें भी आराधना करे ॥ ९ ॥ उपासकको चाहिये कि प्रात:काल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धिके लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे मिट्टी और भस्म आदिका लेप करके पुन: स्नान करे ॥ १० ॥ इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सुदृढ़ सङ्कल्प करके वैदिक और तान्ङ्क्षत्रक विधियोंसे कर्मबन्धनोंसे छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ॥ ११ ॥ मेरी मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी , मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ॥ १२ ॥ चल और अचल भेदसे दो प्रकारकी प्रतिमा ही मुझ भगवान्‌का मन्दिर है। उद्धवजी ! अचल प्रतिमाके पूजनमें प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ चल प्रतिमाके सम्बन्धमें विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमामें तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दनकी तथा चित्रमयी प्रतिमाओंको स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये ॥ १४ ॥ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थोंसे प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थोंसे और भावनामात्रसे ही हृदयमें मेरी पूजा कर ले ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातुकी प्रतिमाके पूजनमें ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टीकी वेदीमें पूजा करनी हो, तो उसमें मन्त्रोंके द्वारा अङ्ग और उसके प्रधान देवताओंकी यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्रिमें पूजा करनी हो, तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियोंसे आहुति देनी चाहिये ॥ १६ ॥ सूर्यको प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासनामें मुख्यत: अघ्र्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जलमें तर्पण आदिसे मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धासे जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेमसे स्वीकार करता हूँ ॥ १७ ॥ यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे, तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जलसे ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओंके समर्पणसे तो कहना ही क्या है ॥ १८ ॥

उपासक पहले पूजाकी सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्वकी ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पवित्रतासे उन कुशोंके आसनपर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ॥ १९ ॥ पहले विधिपूर्वक अङ्गन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्तिमें मन्त्रन्यास करे और हाथसे प्रतिमापरसे पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जलसे भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदिकी पूजा गन्ध-पुष्प आदिसे करे ॥ २० ॥ प्रोक्षणपात्रके जलसे पूजासामग्री और अपने शरीरका प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अघ्र्य और आचमनके लिये तीन पात्रोंमें कलशमेंसे जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धतिके अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्रमें श्यामाक—साँवेके दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अघ्र्यपात्रमें गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्रमें जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवालेको चाहिये कि तीनों पात्रोंको क्रमश: हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्रसे अभिमन्ङ्क्षत्रत करके अन्तमें गायत्रीमन्त्रसे तीनोंको अभिमन्ङ्क्षत्रत करे ॥ २१-२२ ॥ इसके बाद प्राणायामके द्वारा प्राणवायु और भावनाओंद्वारा शरीरस्थ अग्रिके शुद्ध हो जानेपर हृदयकमलमें परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखाके समान मेरी जीवकलाका ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकारके अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद—इन पाँच कलाओंके अन्तमें उसी जीवकलाका ध्यान करते हैं ॥ २३ ॥ वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेजसे सारा अन्त:करण और शरीर भर जाय, तब मानसिक उपचारोंसे मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदिमें स्थापना करे। फिर मन्त्रोंके द्वारा अङ्गन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! मेरे आसनमें धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियोंकी भावना करे। अर्थात् आसनके चारों कोनोंमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओंमें डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियोंकी बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसनपर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरोंकी छटा निराली ही है। आसनके सम्बन्धमें ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये वैदिक और तान्त्रिक विधिसे मेरी पूजा करे ॥ २५-२६ ॥ सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल— इन आठ आयुधोंकी पूजा आठ दिशाओंमें करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्नकी वक्ष:स्थलपर यथास्थान पूजा करे ॥ २७ ॥ नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदोंकी आठ दिशाओंमें; गरुडक़ी सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेनकी चारों कोनोंमें स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरुकी और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमसे उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ २८-२९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...