॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
पुरूरवा की वैराग्योक्ति
श्रीभगवानुवाच
-
एवं
प्रगायन् नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय ।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमत् ज्ञानविधूतमोहः ॥ २५ ॥
ततो
दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः ॥
२६ ॥
सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः
।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः
॥ २७ ॥
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हिता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥
२८ ॥
ता ये श्रृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः
।
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि
॥ २९ ॥
भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यद् अवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥ ३० ॥
यथोपश्रमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा ॥ ३१ ॥
निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम् ।
सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु
मज्जताम् ॥ ३२ ॥
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम्
।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग्
बिभ्यतोऽरणम् ॥ ३३ ॥
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः ।
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च ॥ ३४ ॥
वैतसेनस्ततोऽप्येवं उर्वश्या लोकनिस्पृहः ।
मुक्तसङ्गो महीमेतां आत्मारामश्चचार ह ॥ ३५ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी
! राजराजेश्वर पुरूरवाके मनमें जब इस तरहके उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोकका परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होनेके कारण
उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदयमें ही आत्मस्वरूपसे मेरा साक्षात्कार कर लिया
और वह शान्तभावमें स्थित हो गया ॥ २५ ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि
पुरूरवाकी भाँति कुसङ्ग छोडक़र सत्पुरुषोंका सङ्ग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशोंसे
उसके मनकी आसक्ति नष्ट कर देंगे ॥ २६ ॥ संत पुरुषोंका लक्षण यह है कि उन्हें कभी
किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदयमें शान्तिका
अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूपसे स्थित भगवान्का
ही दर्शन करते हैं। उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं होता,
फिर ममताकी तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकारका भी परिग्रह नहीं रखते ॥
२७ ॥ परम भाग्यवान् उद्धवजी ! संतोंके सौभाग्यकी महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ
मनुष्योंके लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापोंको वे धो डालती हैं ॥ २८ ॥ जो लोग आदर और
श्रद्धासे मेरी लीला- कथाओंका श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त
कर लेते हैं ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ।
मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव , विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल
गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ॥ ३० ॥ उनकी तो
बात ही क्या—जिसने उन संत पुरुषोंकी शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्रिभगवान्का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकारका दु:ख हो सकता है ?
॥ ३१ ॥ जो इस घोर संसारसागर में डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जलमें डूब रहे लोगोंके लिये दृढ़ नौका ॥ ३२ ॥ जैसे अन्नसे
प्राणियोंके प्राणकी रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियोंका परम रक्षक हूँ,
जैसे मनुष्यके लिये परलोकमें धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो
लोग संसारसे भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य आकाशमें उदय
होकर लोगोंको जगत् तथा अपनेको देखनेके लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपनेको तथा भगवान्को देखनेके लिये अन्तर्दृष्टि
देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद् हैं। संत अपने
प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संतके रूप में विद्यमान हूँ ॥ ३४ ॥ प्रिय उद्धव !
आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवा को उर्वशी के लोककी स्पृहा न रही। उसकी
सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण
करने लगा॥३५॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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