॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
पुरूरवा की वैराग्योक्ति
श्रीभगवानुवाच
-
मल्लक्षणमिमं
कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः ।
आनन्दं परमात्मानं आत्मस्थं समुपैति माम् ॥ १ ॥
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया ।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः ।
वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः ॥
२ ॥
सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥ ३ ॥
ऐलः सम्राडिमां गाथां अगायत बृहच्छ्रवाः ।
उर्वशीविरहान् मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे ॥ ४
॥
त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न
उन्मत्तवन्नृपः ।
विलपन् अन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः ॥ ५
॥
कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः ।
न वेद यान्तीर्नायान्तीः उर्वश्याकृष्टचेतनः ॥ ६
॥
ऐल उवाच -
अहो मे
मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः ।
देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुःखण्डा इमे स्मृताः ॥ ७
॥
नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाभ्युदितोऽमुया ।
मूषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत ॥ ८ ॥
अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः ।
क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः ॥ ९ ॥
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम् ।
यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद्
रुदन् ॥ १० ॥
कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा ।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः ॥
११ ॥
किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥
१२ ॥
स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं
पण्डितमानिनम् ।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः ॥
१३ ॥
सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४
॥
पुंशल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः
।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तं अधोक्षजम् ॥ १५ ॥
बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः ।
मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः ॥ १६ ॥
किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः ।
रज्जु स्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः ॥ १७
॥
क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः
।
क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः
॥ १८ ॥
पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः
श्वगृध्रयोः ।
किमात्मनः किं सुहृदां इति यो नावसीयते ॥ १९ ॥
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः ॥
२० ॥
त्वङ्मांसरुधिरस्नायु मेदोमज्जास्थिसंहतौ ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम् ॥ २१ ॥
अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित्
।
विषयेन्द्रियसंयोगान् मनः क्षुभ्यति नान्यथा ॥
२२ ॥
अदृष्टाद् अश्रुताद्भावात् न भाव उपजायते ।
असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः ॥
२३ ॥
तस्मात्सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु
चेन्द्रियैः ।
विदुषां चाप्यविस्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम्
॥ २४ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी
! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञानकी प्राप्तिका—मेरी प्राप्तिका मुख्य साधन है।
इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेमसे मेरी भक्ति करता है,
वह अन्त:करणमें स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता
है ॥ १ ॥ जीवोंकी सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठाके द्वारा उनसे सदाके
लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं,
वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जानेके बाद पुरुष उनके बीचमें रहनेपर भी, उनके द्वारा व्यवहार करनेपर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है
कि उन गुणोंकी वास्तविक सत्ता ही नहीं है ॥ २ ॥ साधारण लोगोंको इस बातका ध्यान
रखना चाहिये कि जो लोग विषयोंके सेवन और उदरपोषणमें ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषोंका सङ्ग कभी न करें;
क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुषकी वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधेके सहारे चलनेवाले अंधेकी। उसे तो घोर अन्धकारमें ही
भटकना पड़ता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा
उर्वशीके विरहसे अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैराग्य
हुआ और तब उसने यह गाथा गायी ॥ ४ ॥ राजा पुरूरवा नग्र होकर पागलकी भाँति अपनेको
छोडक़र भागती हुई उर्वशीके पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौडऩे लगा और कहने लगा— ‘देवि
! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ ॥ ५ ॥ उर्वशीने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें
तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयोंके सेवनमें इतने डूब गये थे कि उन्हें
वर्षोंकी रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं ॥ ६ ॥
पुरूरवाने कहा—हाय-हाय ! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासनाने मेरे चित्तको कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशीने अपनी
बाहुओंसे मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयुके न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह !
विस्मृतिकी भी एक सीमा होती है ॥ ७ ॥ हाय-हाय ! इसने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो
गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेदकी बात है कि बहुत-से वर्षोंके
दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा ॥ ८ ॥ अहो ! आश्चर्य है ! मेरे मनमें
इतना मोह बढ़ गया, जिसने
नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवाको भी स्त्रियोंका क्रीडामृग (खिलौना)
बना दिया ॥ ९ ॥ देखो, मैं
प्रजाको मर्यादामें रखनेवाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाटको तिनकेकी तरह
छोडक़र जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्रीके पीछे दौड़
पड़ा। हाय ! हाय ! यह भी कोई जीवन है ॥ १० ॥ मैं गधेकी तरह दुलत्तियाँ सहकर भी
स्त्रीके पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ॥ ११ ॥ स्त्रीने जिसका मन
चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या,
त्याग और शास्त्राभ्याससे भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं
कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ॥ १२ ॥ मुझे अपनी ही हानि-लाभका पता नहीं, फिर भी अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्खको धिक्कार
है। हाय ! हाय ! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैलकी तरह स्त्रीके फंदेमें
फँस गया ॥ १३ ॥ मैं वर्षोंतक उर्वशीके होठोंकी मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है,
कहीं आहुतियोंसे अग्रिकी तृप्ति हुई है ॥ १४ ॥ उस कुलटाने मेरा
चित्त चुरा लिया। आत्माराम जीवन्मुक्तोंके स्वामी इन्द्रियातीत भगवान्को छोडक़र और
ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदेसे निकाल सके ॥ १५ ॥ उर्वशीने तो मुझे वैदिक
सूक्तके वचनोंद्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था;
परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मनका वह भयङ्कर मोह तब भी
मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथके बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे ॥ १६ ॥ जो रस्सीके स्वरूपको न जानकर उसमें
सर्पकी कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है,
रस्सीने उसका क्या बिगाड़ा है ?
इसी प्रकार इस उर्वशीने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होनेके कारण अपराधी हूँ ॥ १७ ॥
कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्धसे भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोचित गुण ! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दरमें
सुन्दरका आरोप कर लिया ॥ १८ ॥ यह शरीर माता-पिताका सर्वस्व है अथवा पत्नीकी
सम्पत्ति ? यह स्वामीकी मोल ली हुई वस्तु है,
आगका र्ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधोंका भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियोंका ?
बहुत सोचने-विचारनेपर भी कोई निश्चय नहीं होता ॥ १९ ॥ यह शरीर
मल-मूत्रसे भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर
दें, इसके सड़ जानेपर इसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा जला देनेपर यह राखका
ढेर हो जाय। ऐसे शरीरपर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं—‘अहो ! इस
स्त्रीका मुखड़ा कितना सुन्दर है ! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुसकान कितनी
मनोहर है ॥ २० ॥ यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा
और हड्डियोंका ढेर और मल-मूत्र तथा पीबसे भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है, तो मल-मूत्रके कीड़ोंमें और उसमें अन्तर ही क्या है ॥ २१ ॥ इसलिये
अपनी भलाई समझनेवाले विवेकी मनुष्यको चाहिये कि स्त्रियों और स्त्रीलम्पट
पुरुषोंका सङ्ग न करे। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे ही मनमें विकार होता है; अन्यथा विकारका कोई अवसर ही नहीं है ॥ २२ ॥ जो वस्तु कभी देखी या
सुनी नहीं गयी है, उसके
लिये मनमें विकार नहीं होता। जो लोग विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संयोग नहीं होने
देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है ॥ २३ ॥ अत: वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का सङ्ग
कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगों की तो बात ही क्या,बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय
नहीं हैं ॥२४॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें