॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
परमार्थ-निरूपण
श्रीभगवानुवाच
-
यावद्
देहेन्द्रियप्राणैः आत्मनः सन्निकर्षणम् ।
संसारः फलवांस्तावद् अपार्थोऽप्यविवेकिनः ॥ १२ ॥
अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ १३ ॥
यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ १४ ॥
शोकहर्षभयक्रोध लोभमोहस्पृहादयः ।
अहङ्कारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मनः ॥
१५ ॥
देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो
जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः ।
सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः
संसार आधावति कालतन्त्रः ॥ १६ ॥
अमूलमेतद् बहुरूपरूपितं
मनोवचःप्राणशरीरकर्म ।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन
च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः ॥ १७ ॥
ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च
प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम् ।
आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं
कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये ॥ १८ ॥
यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्
पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य ।
तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं
नानापदेशैरहमस्य तद्वत् ॥ १९ ॥
विज्ञानमेतत् त्रियवस्थमङ्ग
गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ ।
समन्वयेन व्यतिरेकतश्च
येनैव तुर्येण तदेव सत्यम् ॥ २० ॥
न यत्पुरस्ताद् उत यन्न पश्चान्
मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम् ।
भूतं प्रसिद्धं च परेण यद् यत्
तदेव तत् स्यादिति मे मनीषा ॥ २१ ॥
अविद्यमानोऽप्यवभासते यो
वैकारिको राजससर्ग एषः ।
ब्रह्म स्वयं ज्योतिरतो विभाति
ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम् ॥ २२ ॥
एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः ।
परापवादेन विशारदेन ।
छित्त्वाऽऽत्मसन्देहमुपारमेत ।
स्वानन्दतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः ॥ २३ ॥
नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि
देवा ह्यसुर्वायुर्जलम् हुताशः ।
मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्वम्
अहङ्कृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम् ॥ २४ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—वस्तुत:
प्रिय उद्धव ! संसारका अस्तित्व नहीं है तथापि जबतक देह,
इन्द्रिय और प्राणोंके साथ आत्माकी सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तबतक अविवेकी पुरुषको वह सत्य-सा स्फुरित होता है ॥ १२ ॥ जैसे
स्वप्नमें अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तवमें वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटनेतक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसारके न होनेपर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयोंका
चिन्तन करते रहते हैं, उनके
जन्म-मृत्युरूप संसारकी निवृत्ति नहीं होती ॥ १३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटनेके पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियोंका सामना करना पड़ता
है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है,
वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्नकी विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह
आदि विकार ॥ १४ ॥ उद्धवजी ! अहङ्कार ही शोक,
हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा
और जन्म-मृत्युका शिकार बनता है। आत्मासे तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ १५ ॥
उद्धवजी ! देह, इन्द्रिय, प्राण और मनमें स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें
अपना स्वरूप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म
आत्माकी मूर्ति है—गुण और कर्मोंका बना हुआ लिङ्गशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा
जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वरके
अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसारमें इधर-उधर भटकता रहता है ॥ १६ ॥ वास्तवमें मन, वाणी, प्राण
और शरीर अहङ्कारके ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल,
परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपोंमें इसीकी प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासनाकी
शानपर चढ़ाकर ज्ञानकी तलवारको अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा
देहाभिमानका—अहङ्कारका मूलोच्छेद करके पृथ्वीमें निद्र्वन्द्व होकर विचरता है। फिर
उसमें किसी प्रकारकी आशा-तृष्णा नहीं रहती ॥ १७ ॥ आत्मा और अनात्माके स्वरूपको
पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है,
क्योंकि विवेक होते ही द्वैतका अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है
तपस्याके द्वारा हृदयको शुद्ध करके वेदादि शास्त्रोंका श्रवण करना।
इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल
युक्तियाँ, महापुरुषोंके उपदेश और इन दोनोंसे अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण
हैं। सबका सार यही निकलता है कि इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है,
वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीचमें भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु
नहीं है ॥ १८ ॥ उद्धवजी ! सोनेसे कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं;
परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे,
तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे,
तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीचमें उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों
नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत्का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तवमें मैं ही सत्य तत्त्व हूँ ॥ १९ ॥
भाई उद्धव ! मनकी तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओंके कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व,
रज और तम, और जगत्के तीन भेद हैं—अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी
सत्तासे सत्यके समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदिमें यह त्रिविधता न रहनेपर भी
जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व—इन तीनोंसे परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्त्व
ही सत्य है ॥ २० ॥ जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं—केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और
जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है,
वही उसकी परमार्थ-सत्ता है—यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ २१ ॥ यह जो
विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होनेपर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये
इन्द्रिय, विषय, मन
और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो
रहा है ॥ २२ ॥ ब्रह्मविचारके साधन हैं—श्रवण,
मनन, निदिध्यासन
और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके
स्पष्टरूपसे देहादि अनात्म पदार्थोंका निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेधके
द्वारा आत्मविषयक सन्देहोंको छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मामें ही मग्र
हो जाय और सब प्रकारकी विषयवासनाओंसे रहित हो जाय ॥ २३ ॥ निषेध करनेकी प्रक्रिया
यह है कि पृथ्वीका विकार होनेके कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्रि
एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अन्नके द्वारा होता है।
बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड हैं ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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