॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
परमार्थ-निरूपण
समाहितैः
कः करणैर्गुणात्मभि
र्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः ।
विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं ।
घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम् ॥ २५ ॥
यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै
र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते ।
तथाक्षरं
सत्त्वरजस्तमोमलै
रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम् ॥ २६ ॥
तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो
गुणेषु मायारचितेषु तावत् ।
मद्भक्तियोगेन दृढेन यावद्
रजो निरस्येत मनःकषायः ॥ २७ ॥
यथाऽऽमयोऽसाधु चिकित्सितो नृणां
पुनः पुनः सन्तुदति प्ररोहन् ।
एवं मनोऽपक्वकषायकर्म
कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम् ॥ २८ ॥
कुयोगिनो ये विहितान्तरायै
र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः ।
ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो
युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम् ॥ २९ ॥
करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपतात् ।
न तत्र
विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या ॥ ३० ॥
उद्धवजी ! जिसे मेरे स्वरूपका
भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ
क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं,
तो उनसे हानि भी क्या है ?
क्योंकि अन्त:करण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मासे इनका कोई
सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाशमें
बादलोंके छा जाने अथवा तितर-बितर हो जानेसे सूर्यका क्या बनता-बिगड़ता है ? ॥ २५ ॥ जैसे वायु आकाशको सुखा नहीं सकती,
आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओंके गुण गरमी-सर्दी आदि उसे
प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका
एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्माका स्पर्श
नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसारमें भटकता
है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! ऐसा होनेपर भी तबतक
इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न
जाय ॥ २७ ॥
उद्धवजी ! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न
करनेपर रोगका समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्यको सताया करता है;
वैसे ही जिस मनकी वासनाएँ और कर्मोंके संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त है,
वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी
कर देता है ॥ २८ ॥ देवताओंके द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदिके द्वारा किये हुए
विघ्रोंसे यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके
कारण पुन: योगाभ्यासमें ही लग जाता है। कर्म आदिमें उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ २९
॥ उद्धवजी ! जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही
लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त
होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है,
वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी ,
संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी,
उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त
नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी
आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ ३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें