रविवार, 11 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

परमार्थ-निरूपण

 

समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभि

     र्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः ।

 विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं ।

     घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम् ॥ २५ ॥

 यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै

     र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते ।

 तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै

     रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम् ॥ २६ ॥

 तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो

     गुणेषु मायारचितेषु तावत् ।

 मद्‍भक्तियोगेन दृढेन यावद्

     रजो निरस्येत मनःकषायः ॥ २७ ॥

 यथाऽऽमयोऽसाधु चिकित्सितो नृणां

     पुनः पुनः सन्तुदति प्ररोहन् ।

 एवं मनोऽपक्वकषायकर्म

     कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम् ॥ २८ ॥

 कुयोगिनो ये विहितान्तरायै

     र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः ।

 ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो

     युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम् ॥ २९ ॥

 करोति कर्म क्रियते च जन्तुः

     केनाप्यसौ चोदित आनिपतात् ।

 न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि

     निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या ॥ ३० ॥

 

उद्धवजी ! जिसे मेरे स्वरूपका भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं, तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्त:करण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाशमें बादलोंके छा जाने अथवा तितर-बितर हो जानेसे सूर्यका क्या बनता-बिगड़ता है ? ॥ २५ ॥ जैसे वायु आकाशको सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओंके गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्माका स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसारमें भटकता है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! ऐसा होनेपर भी तबतक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ॥ २७ ॥

उद्धवजी ! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करनेपर रोगका समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्यको सताया करता है; वैसे ही जिस मनकी वासनाएँ और कर्मोंके संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है ॥ २८ ॥ देवताओंके द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदिके द्वारा किये हुए विघ्रोंसे यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके कारण पुन: योगाभ्यासमें ही लग जाता है। कर्म आदिमें उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी , संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी, उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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