॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
परमार्थ-निरूपण
तिष्ठन्तमासीनमुत
व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।
स्वभावमन्यत् किमपीहमानं
आत्मानमात्मस्थमतिर्न वेद ॥ ३१ ॥
यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत् ।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम् ॥ ३२ ॥
पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रम्
अज्ञानमात्मन्यविविक्तमङ्ग ।
निवर्तते तत्पुनरीक्षयैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा ॥ ३३ ॥
यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां
तमो निहन्यान्न तु सद् विधत्ते ।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः ॥ ३४ ॥
एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः ।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ ३५ ॥
एतावान्
आत्मसम्मोहो यद् विकल्पस्तु केवले ।
आत्मन्नृते स्वमात्मानं अवलम्बो न यस्य हि ॥ ३६
॥
यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पञ्चवर्णमबाधितम् ।
व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पण्डितमानिनाम् ॥
३७ ॥
योगिनोऽपक्वयोगस्य युञ्जतः काय उत्थितैः ।
उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः ॥ ३८ ॥
योगधारणया कांश्चिद् आसनैर्धारणान्वितैः ।
तपोमन्त्रौषधैः कांश्चिद् उपसर्गान् विनिर्दहेत्
॥ ३९ ॥
कांश्चित् ममानुध्यानेन नामसङ्कीर्तनादिभिः ।
योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्याद् अशुभदान्छनैः ॥
४० ॥
केचिद् देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम् ।
विधाय विविधोपायैः अथ युञ्जन्ति सिद्धये ॥ ४१ ॥
न हि तत् कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः ।
अन्तवत्त्वात् शरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः ॥ ४२ ॥
योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात् ।
तत् श्रद्दध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः
॥ ४३ ॥
योगचर्यामिमां योगी विचरन् मदपाश्रयः ।
नान्तरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः ॥
४४ ॥
जो अपने स्वरूपमें स्थित हो गया है, उसे इस बातका भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूपमें स्थित—ब्रह्माकार रहती है ॥
३१ ॥ यदि ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें इन्द्रियोंके विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मासे भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूतिसे सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जानेपर
स्वप्नमें देखे हुए और जागनेपर तिरोहित हुए पदार्थोंको कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपनेसे भिन्न प्रतीयमान पदार्थोंको सत्य
नहीं मानते ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानीने आत्माका त्याग कर
दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों
प्रकारके गुण और कर्मोंसे युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञानके कारण आत्मासे अभिन्न मान लिये
गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होनेपर अज्ञान और उसके
कार्योंकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञानकी निवृत्ति ही अभीष्ट है।
निवृत्तियोंके द्वारा न तो आत्माका ग्रहण हो सकता है और न त्याग ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य
उदय होकर मनुष्योंके नेत्रोंके सामनेसे अन्धकारका परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तुका निर्माण नहीं करते,
वैसे ही मेरे स्वरूपका दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुषके बुद्धिगत
अज्ञानका आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूपसे किसी वस्तुका अनुभव नहीं कराता ॥ ३४ ॥
उद्धवजी ! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान
आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी
वृत्तिमें आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार
भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी और सब प्रकारकी
अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्माको अपना अविषय समझकर निवृत्त हो
जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदसे शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टिसे
उसके स्वरूपका वाणी और प्राण आदिके प्रवर्तकके रूपमें निरूपण किया जाता है ॥ ३५ ॥
उद्धवजी ! अद्वितीय आत्मतत्त्वमें
अर्थहीन नामोंके द्वारा विविधता मान लेना ही मनका भ्रम है,
अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है,
क्योंकि अपने आत्माके अतिरिक्त उस भ्रमका भी और कोई अधिष्ठान नहीं
है। अधिष्ठान-सत्तामें अध्यस्तकी सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है ॥
३६ ॥ बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न
नामों और रूपोंके रूपमें इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणीका आडम्बरमात्र है; क्योंकि तत्त्वत: तो इन्द्रियोंकी पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसीको प्रमाणित कैसे करेंगी ?
॥ ३७ ॥
उद्धवजी ! यदि योगसाधना पूर्ण
होनेके पहले ही किसी साधकका शरीर रोगादि उपद्रवोंसे पीडि़त हो, तो उसे इन उपायोंका आश्रय लेना चाहिये ॥ ३८ ॥ गरमी-ठंडक आदिको
चन्द्रमा-सूर्य आदिकी धारणाके द्वारा, वात आदि रोगोंको वायुधारणायुक्त आसनोंके द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत
विघ्नों को तपस्या,मन्त्र
एवं ओषधिके द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये ॥ ३९ ॥ काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे
चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदिके द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतनकी ओर ले जानेवाले
दम्भ-मद आदि विघ्रोंको धीरे-धीरे महापुरुषोंकी सेवाके द्वारा दूर कर देना चाहिये ॥
४० ॥ कोई-कोई मनस्वी योगी विविध उपायोंके द्वारा इस शरीरको सुदृढ़ और युवावस्थामें
स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियोंके लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष ऐसे विचारका समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्षमें लगे हुए फलके समान इस
शरीरका नाश तो अवश्यम्भावी है ॥ ४१-४२ ॥ यदि कदाचित् बहुत दिनोंतक निरन्तर और
आदरपूर्वक योगसाधना करते रहनेपर शरीर सुदृढ़ भी हो जाय,
तब भी बुद्धिमान् पुरुषको अपनी साधना छोडक़र उतनेमें ही सन्तोष नहीं
कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्तिके लिये ही संलग्र रहना चाहिये ॥ ४३ ॥
जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधनामें संलग्र रहता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो
जाती हैं और वह आत्मानन्दकी अनुभूतिमें मग्न हो जाता है ॥ ४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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