॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धवजीका
बदरिकाश्रमगमन
श्रीउद्धव
उवाच -
सुदुश्चरां इमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः ।
यथाञ्जसा पुमान् सिद्ध्येत् तन्मे
ब्रूह्यञ्जसाच्युत ॥ १ ॥
प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः ।
विषीदन्त्यसमाधानान् मनोनिग्रहकर्शिताः ॥ २ ॥
अथात
आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि
स्त्वन्माययामी विहता न मानिनः ॥ ३ ॥
किं
चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो
दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम् ।
योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः ॥ ४ ॥
तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां
सर्वार्थदं स्वकृतविद् विसृजेत को नु ।
को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनु भूत्यै
किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥ ५ ॥
नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश
ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।
योऽन्तर्बहिस्तनुभृतां अशुभं विधुन्वन्
आचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ॥ ६ ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा
पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः ।
गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो
जगाद सप्रेममनोहरस्मितः ॥ ७ ॥
श्रीभगवानुवाच -
हन्त
ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमङ्गलान् ।
याञ्छ्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति
दुर्जयम् ॥ ८ ॥
कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन् ।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः ॥ ९ ॥
देशान् पुण्यान् आश्रयेत मद्भक्तैः साधुभिः
श्रितान् ।
देवासुरमनुष्येषु मद्भक्ताचरितानि च ॥ १० ॥
पृथक् सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान् ।
कारयेद् गीत नृत्याद्यैः महाराजविभूतिभिः ॥ ११
॥
मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम् ।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ॥ १२ ॥
इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते ।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः ॥ १३ ॥
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के
स्फुलिङ्गके ।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥ १४ ॥
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥
१५ ॥
विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च
दैहिकीम् ।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमौ अश्वचाण्डालगोखरम् ॥ १६ ॥
यावर् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वाङ्मनःकायवृत्तिभिः ॥ १७ ॥
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया ।
परिपश्यन् उपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः ॥ १८ ॥
अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥ १९ ॥
न ह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि ।
मया व्यवसितः सम्यङ् निर्गुणत्वादनाशिषः ॥ २० ॥
यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद् भयादेरिव सत्तम ॥ २१ ॥
एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम् ।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥ २२ ॥
उद्धवजीने कहा—अच्युत ! जो अपना मन
वशमें नहीं कर सका है, उसके
लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधनाको तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अत: अब आप कोई
ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ॥ १ ॥ कमलनयन ! आप
जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मनको एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करनेपर भी सफल न होनेके कारण हार मान लेते
हैं और उसे वशमें न कर पानेके कारण दुखी हो जाते हैं ॥ २ ॥ पद्मलोचन ! आप
विश्वेश्वर हैं ! आपके ही द्वारा सारे संसारका नियमन होता है। इसीसे
सारासार-विचारमें चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलोंकी शरण लेते हैं और अनायास
ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठानका अभिमान नहीं होता।
परन्तु जो आपके चरणोंका आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधनके घमंडसे फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी मायाने उनकी मति हर ली है ॥ ३ ॥ प्रभो ! आप सबके
हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकोंके अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है;
क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरोंसे भी मित्रताका
निर्वाह किया। यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटोंको आपके चरणकमल
रखनेकी चौकीपर रगड़ते रहते हैं ॥ ४ ॥ प्रभो ! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतोंको सब कुछ दे देते
हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तोंको जो कुछ दिया है,
उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धिमें ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृतिके गर्तमें डालनेवाले तुच्छ विषयोंमें ही
फँसा रखनेवाले भोगोंको क्यों चाहेगा ? हमलोग आपके चरणकमलोंकी रजके उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या
है ? ॥ ५ ॥ भगवन् ! आप समस्त प्राणियोंके अन्त:करणमें अन्तर्यामीरूपसे
और बाहर गुरुरूपसे स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक
स्वरूपको उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजीके समान
लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारोंका बदला नहीं चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकारोंका
स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। वे ही सत्त्व- रज आदि
गुणोंके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका रूप धारण करके जगत्की उत्पत्ति-स्थिति आदिके खेल
खेला करते हैं। जब उद्धवजीने अनुरागभरे चित्तसे उनसे यह प्रश्र किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेमसे कहना प्रारम्भ किया ॥
७ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—प्रिय उद्धव ! अब
मैं तुम्हें अपने उन मङ्गलमय भागवतधर्मोंका उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्युको
अनायास ही जीत लेता है ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मेरे भक्तको चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे
लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरणका अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही
दिनोंमें उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही
धर्मोंमें रम जायँगे ॥ ९ ॥ मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानोंमें निवास करते हों, उन्हींमें रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्योंमें जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणोंका अनुसरण करे ॥ १० ॥ पर्वके अवसरोंपर सबके साथ मिलकर
अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाटसे मेरी यात्रा आदिके महोत्सव करे ॥
११ ॥ शुद्धान्त:करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ
परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे ॥ १२ ॥ निर्मलबुद्धि
उद्धवजी ! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और
पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा
ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर
और ब्राह्मणभक्त, सूर्य
और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है,
उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ॥ १३-१४ ॥ जब निरन्तर सभी
नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनोंमें साधकके चित्तसे स्पद्र्धा (होड़), ईष्र्या, तिरस्कार और अहङ्कार आदि दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५ ॥ अपने ही लोग
यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ १६
॥ जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना—भगवद्-भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे
॥ १७ ॥ उद्धवजी ! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि—ब्रह्मबुद्धिका अभ्यास किया
जाता है, तब थोड़े ही दिनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने
लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और
वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है ॥ १८ ॥ मेरी
प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों
और पदार्थोंमें मन वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी ही भावना की जाय ॥ १९ ॥
उद्धवजी ! यही मेरा अपना भागवतधर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्र-बाधासे
इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके
कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है ॥ २० ॥ भागवतधर्ममें किसी प्रकारकी त्रुटि पडऩी तो
दूर रही—यदि इस धर्मका साधक भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे
भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ॥ २१ ॥ विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी
चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी
एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें