॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धवजीका
बदरिकाश्रमगमन
एष
तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः ।
समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः ॥ २३ ॥
अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत् ।
एतद् विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः ॥ २४ ॥
सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत् ।
सनातनं ब्रह्मगुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ २५ ॥
य एतन्मम भक्तेषु सम्प्रदद्यात् सुपुष्कलम् ।
तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना ॥ २६
॥
य एतत् समधीयीत पवित्रं परमं शुचि ।
स पूयेताहरहर्मां ज्ञानदीपेन दर्शयन् ॥ २७ ॥
य एतत् श्ररद्धया नित्यं अव्यग्रः श्रृणुयान्नरः
।
मयि भक्तिं परां कुर्वन् कर्मभिर्न स बध्यते ॥
२८ ॥
अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम् ।
अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः ॥ २९ ॥
नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।
अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम् ॥ ३० ॥
एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च ।
साधवे शुचये ब्रूयाद् भक्तिः स्यात्
शूद्रयोषिताम् ॥ ३१ ॥
नैतद् विज्ञाय जिज्ञासोः ज्ञातव्यं अवशिष्यते ।
पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते ॥ ३२ ॥
ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे ।
यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः ॥
३३ ॥
मर्त्यो
यदा त्यक्तसमस्तकर्मा
निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे ।
तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानो
मयाऽऽत्मभूयाय च कल्पते वै ॥ ३४ ॥
श्रीशुक उवाच -
स
एवमादर्शितयोगमार्गः
तदोत्तमःश्लोकवचो निशम्य ।
बद्धाञ्जलिः प्रीत्युपरुद्धकण्ठो
न किञ्चिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः ॥ ३५ ॥
विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं
धैर्येण राजन्बहुमन्यमानः ।
कृताञ्जलिः प्राह यदुप्रवीरं
शीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम् ॥ ३६ ॥
श्रीउद्धव उवाच -
विद्रावितो
मोहमहान्धकारो
य आश्रितो मे तव सन्निधानात् ।
विभावसोः किं नु समीपगस्य
शीतं तमो भीः प्रभवन्त्यजाद्य ॥ ३७ ॥
प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिना
भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः ।
हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं
कोऽन्यत् समीयाच्छरणं त्वदीयम् ॥ ३८ ॥
वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो
दाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वतेषु ।
प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया
स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना ॥ ३९ ॥
नमोऽस्तु
ते महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम् ।
यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी ॥ ४० ॥
श्रीभगवानुवाच -
गच्छोद्धव
मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम् ।
तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः ॥
४१ ॥
ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः ।
वसानो वल्कलान्यङ्ग वन्यभुक्सुखनिःस्पृहः ॥ ४२ ॥
तितिक्षुः
द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः ।
शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः ॥ ४३ ॥
मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन् ।
मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव ।
अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम् ॥ ४४
॥
श्रीशुक उवाच -
स
एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः
प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः ।
शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधीः
न्यषिञ्चदद्वन्द्वपरोऽप्यपक्रमे ॥ ४५ ॥
सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो
न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः ।
कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके
बिभ्रन् नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः ॥ ४६ ॥
ततस्तमन्तर्हुदि सन्निवेश्य
गतो महाभागवतो विशालाम् ।
यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुना
तपः समास्थाय हरेरगाद् गतिम् ॥ ४७ ॥
य एतद् आनन्दसमुद्रसम्भृतं
ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम् ।
कृष्णेन योगेश्वरसेविताङ्घ्रिणा
सच्छ्रद्धयाऽऽसेव्य जगद्विमुच्यते ॥ ४८ ॥
भवभयमपहन्तुं
ज्ञानविज्ञानसारं
निगमकृद् उपजह्रे भृङ्गवद् वेदसारम् ।
अमृतमुदधितश्चा पाययद् भृत्यवर्गान्
पुरुषं ऋषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि ॥ ४९
॥
उद्धवजी ! यह सम्पूर्ण
ब्रह्मविद्याका रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तारसे तुम्हें सुना दिया। इस रहस्यको
समझना मनुष्योंकी तो कौन कहे, देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है ॥ २३ ॥ मैंने जिस सुस्पष्ट और
युक्तियुक्त ज्ञानका वर्णन बार-बार किया है,
उसके मर्मको जो समझ लेता है,
उसके हृदयकी संशय-ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त
हो जाता है ॥ २४ ॥ मैंने तुम्हारे प्रश्रका भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्रोत्तरको विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदोंके भी परम रहस्य सनातन परब्रह्मको प्राप्त कर लेगा ॥ २५ ॥
जो पुरुष मेरे भक्तोंको इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाताको मैं प्रसन्न मनसे अपना स्वरूपतक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! यह तुम्हारा और मेरा
संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही, दूसरोंको भी पवित्र करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और
दूसरोंको सुनायेगा, वह
इस ज्ञानदीपके द्वारा दूसरोंको मेरा दर्शन करानेके कारण पवित्र हो जायगा ॥ २७ ॥ जो
कोई एकाग्र चित्तसे इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा,
उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा
॥ २८ ॥ प्रिय सखे ! तुमने भलीभाँति ब्रह्मका स्वरूप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्तका मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? ॥ २९ ॥ तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुषको कभी मत देना ॥ ३० ॥ जो इन दोषोंसे रहित
हो, ब्राह्मणभक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो,
उसीको यह प्रसङ्ग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे
प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों, तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये ॥ ३१ ॥ जैसे दिव्य अमृतपान कर
लेनेपर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेनेपर जिज्ञासुके लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं
रहता, ॥ ३२ ॥ प्यारे उद्धव ! मनुष्योंको ज्ञान,
कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादिसे क्रमश: मोक्ष,
धर्म, काम
और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे- जैसे अनन्य भक्तोंके लिये वह चारों प्रकारका फल
केवल मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ जिस समय मनुष्य समस्त कर्मोंका परित्याग करके मुझे
आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्वसे
छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप
हो जाता है ॥ ३४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
अब उद्धवजी योगमार्गका पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे। भगवान् श्रीकृष्णकी
बात सुनकर उनकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये। प्रेमकी बाढ़से गला रुँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणीसे कुछ बोला न गया ॥ ३५ ॥ उनका
चित्त प्रेमावेशसे विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपनेको अत्यन्त सौभाग्यशाली
अनुभव करते हुए सिरसे यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको स्पर्श किया तथा
हाथ जोडक़र उनसे यह प्रार्थना की ॥ ३६ ॥
उद्धवजीने कहा—प्रभो ! आप माया और
ब्रह्मा आदिके भी मूल कारण हैं। मैं मोहके महान् अन्धकारमें भटक रहा था। आपके
सत्सङ्गसे वह सदाके लिये भाग गया। भला, जो अग्रिके पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होनेवाला भय ठहर सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ भगवन् ! आपकी मोहिनी मायाने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवकको लौटा दिया। आपने मेरे
ऊपर महान् अनुग्रहकी वर्षा की है। ऐसा कौन होगा,
जो आपके इस कृपा-प्रसादका अनुभव करके भी आपके चरणकमलोंकी शरण छोड़
दे और किसी दूसरेका सहारा ले ? ॥ ३८ ॥ आपने अपनी मायासे सृष्टिवृद्धिके लिये दाशाशार्ह, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवोंके साथ मुझे सुदृढ़ स्नेहपाशसे बाँध
दिया था। आज आपने आत्मबोधकी तीखी तलवारसे उस बन्धनको अनायास ही काट डाला ॥ ३९ ॥
महायोगेश्वर ! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागतको ऐसी आज्ञा
दीजिये, जिससे आपके चरणकमलोंमें मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ॥ ४० ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी !
अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे
चरणकमलोंके धोवन गङ्गाजलका स्नान-पानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ॥ ४१
॥ अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव !
तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर
नि:स्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ॥ ४२ ॥ सर्दी-गरमी, सुख-दु:ख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना,
इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और
तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें जो कुछ
शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त
मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें
तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे
परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका ज्ञान संसारके भेदभ्रमको छिन्न-भिन्न कर देता है। जब
उन्होंने स्वयं उद्धवजीको ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके
चरणोंपर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोगसे होनेवाले
सुख-दु:खके जोड़ेसे परे थे, क्योंकि वे भगवान्के निद्र्वन्द्व चरणोंकी शरण ले चुके थे; फिर भी वहाँसे चलते समय उनका चित्त प्रेमावेशसे भर गया। उन्होंने
अपने नेत्रोंकी झरती हुई अश्रुधारासे भगवान्के चरणकमलोंको भिगो दिया ॥ ४५ ॥
परीक्षित् ! भगवान्के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हींके
वियोगकी कल्पनासे उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करनेमें समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मूर्च्छित
होने लगे। कुछ समयके बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी पादुकाएँ अपने
सिरपर रख लीं और बार-बार भगवान् के चरणोंमें प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थान किया ॥
४६ ॥ भगवान्के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदयमें उनकी दिव्य छबि धारण किये
बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत्के एकमात्र हितैषी
भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की ॥ ४७ ॥ भगवान्
शङ्कर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी सेवा किया
करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुखसे अपने परमप्रेमी भक्त उद्धवके लिये इस
ज्ञानामृतका वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागरका सार है। जो श्रद्धाके साथ
इसका सेवन करता है, वह
तो मुक्त हो ही जाता है, उसके सङ्गसे सारा जगत् मुक्त हो जाता है ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! जैसे
भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदोंको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने
भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है।
उन्हींने जरा-रोगादि भयकी निवृत्तिके लिये क्षीरसमुद्रसे अमृत भी निकाला था तथा
इन्हें क्रमश: अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोंको पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत् के मूल कारण हैं।
मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ४९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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