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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
यदुकुलका संहार
श्रीराजोवाच
ततो
महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्
द्वारवत्यां
किमकरोद्भगवान्भूतभावनः १
ब्रह्मशापोपसंसृष्टे
स्वकुले यादवर्षभः
प्रेयसीं
सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत् २
प्रत्याक्रष्टुं
नयनमबला यत्र लग्नं न शेकुः
कर्णाविष्टं
न सरति ततो यत्सतामात्मलग्नम्
यच्छ्रीर्वाचां
जनयति रतिं किं नु मानं कवीनां
दृष्ट्वा
जिष्णोर्युधि रथगतं यच्च तत्साम्यमीयुः ३
श्री
ऋषिरुवाच
दिवि
भुव्यन्तरिक्षे च महोत्पातान्समुत्थितान्
दृष्ट्वासीनान्सुधर्मायां
कृष्णः प्राह यदूनिदम् ४
श्रीभगवानुवाच
एते
घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः
मुहूर्तमपि
न स्थेयमत्र नो यदुपुङ्गवाः ५
स्त्रियो
बालाश्च वृद्धाश्च शङ्खोद्धारं व्रजन्त्वितः
वयं
प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक्सरस्वती ६
तत्राभिषिच्य
शुचय उपोष्य सुसमाहिताः
देवताः
पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः ७
ब्राह्मणांस्तु
महाभागान्कृतस्वस्त्ययना वयम्
गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः
८
विधिरेष
ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम्
देवद्विजगवां
पूजा भूतेषु परमो भवः ९
इति
सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः
तथेति
नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः १०
तस्मिन्भगवतादिष्टं
यदुदेवेन यादवाः
चक्रुः
परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम् ११
ततस्तस्मिन्महापानं
पपुर्मैरेयकं मधु
दिष्टविभ्रंशितधियो
यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः १२
महापानाभिमत्तानां
वीराणां दृप्तचेतसाम्
कृष्णमायाविमूढानां
सङ्घर्षः सुमहानभूत् १३
युयुधुः
क्रोधसंरब्धा वेलायामाततायिनः
धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः
१४
पतत्पताकै
रथकुञ्जरादिभिः खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि
मिथः
समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा न्यहन्शरैर्दद्भिरिव द्विपा वने १५
प्रद्युम्नसाम्बौ
युधि रूढमत्सराव्
अक्रूरभोजावनिरुद्धसात्यकी
सुभद्र
सङ्ग्रामजितौ सुदारुणौ
गदौ
सुमित्रासुरथौ समीयतुः १६
अन्ये
च ये वै निशठोल्मुकादयः सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः
अन्योन्यमासाद्य
मदान्धकारिता जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम् १७
दाशार्हवृष्ण्यन्धकभोजसात्वता
मध्वर्बुदा
माथुरशूरसेनाः
विसर्जनाः
कुकुराः कुन्तयश्च
मिथस्तु
जघ्नुः सुविसृज्य सौहृदम् १८
पुत्रा
अयुध्यन्पितृभिर्भ्रातृभिश्च
स्वस्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः
मित्राणि
मित्रैः सुहृदः सुहृद्भिर्
ज्ञातींस्त्वहन्ज्ञातय
एव मूढाः १९
शरेषु
क्षीयमाणेषु भज्यमानेसु धन्वसु
शस्त्रेषु
क्षीयमानेषु मुष्टिभिर्जह्रुरेरकाः २०
ता
वज्रकल्पा ह्यभवन्परिघा मुष्टिना भृताः
जघ्नुर्द्विषस्तैः
कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते २१
प्रत्यनीकं
मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः
हन्तुं
कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः २२
अथ
तावपि सङ्क्रुद्धावुद्यम्य कुरुनन्दन
एरकामुष्टिपरिघौ
चरन्तौ जघ्नतुर्युधि २३
ब्रह्मशापोपसृष्टानां
कृष्णमायावृतात्मनाम्
स्पर्धाक्रोधः
क्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम् २४
एवं
नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः
अवतारितो
भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः २५
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! जब
महाभागवत उद्धवजी बदरीवनको चले गये, तब भूतभावन भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें क्या लीला रची ? ॥ १ ॥ प्रभो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने अपने कुलके
ब्रह्मशापग्रस्त होनेपर सबके नेत्रादि इन्द्रियोंके परम प्रिय अपने दिव्य
श्रीविग्रहकी लीलाका संवरण कैसे किया ? ॥ २ ॥ भगवन् ! जब स्त्रियोंके नेत्र उनके श्रीविग्रहमें लग जाते
थे। तब वे उन्हें वहाँसे हटानेमें असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी
रूपमाधुरीका वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानोंके रास्ते प्रवेश करके उनके चित्तमें गड़-सा
जाता है, वहाँसे हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियोंकी काव्यरचनामें अनुरागका
रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है,
इसके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। महाभारत-युद्धके समय जब वे
हमारे दादा अर्जुनके रथपर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओंने उसे देखते-देखते शरीर- त्याग किया; उन्हें सारूप्य मुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत
श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया ? ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें बड़े-बड़े उत्पात—अशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा सभामें उपस्थित सभी यदुवंशियोंसे यह बात कही—
॥ ४ ॥ श्रेष्ठ यदुवंशियो ! यह देखो, द्वारकामें बड़े-बड़े भयङ्कर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात्
यमराजकी ध्वजाके समान हमारे महान् अनिष्टके सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी
भी नहीं ठहरना चाहिये ॥ ५ ॥ स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँसे शंखोद्धारक्षेत्रमें चले जायँ और हम लोग
प्रभासक्षेत्रमें चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिमकी ओर बहकर
समुद्रमें जा मिली हैं ॥ ६ ॥ वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्तसे स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियोंसे
देवताओंकी पूजा करेंगे ॥ ७ ॥ वहाँ स्वस्तिवाचनके बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदिके द्वारा महात्मा ब्राह्मणोंका सत्कार करेंगे ॥ ८ ॥
यह विधि सब प्रकारके अमङ्गलोंका नाश करनेवाली और परम मङ्गलकी जननी है। श्रेष्ठ
यदुवंशियो ! देवता, ब्राह्मण
और गौओंकी पूजा ही प्राणियोंके जन्मका परम लाभ है’ ॥ ९ ॥
परीक्षित् ! सभी वृद्ध
यदुवंशियोंने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया
और तुरंत नौकाओंसे समुद्र पार करके रथोंद्वारा प्रभासक्षेत्रकी यात्रा की ॥ १० ॥
वहाँ पहुँचकर यादवोंने यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा
और भक्तिसे शान्तिपाठ आदि तथा और भी सब प्रकारके मङ्गलकृत्य किये ॥ ११ ॥ यह सब तो
उन्होंने किया; परन्तु दैवने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिराका पान
करने लगे, जिसके नशेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीनेमें तो अवश्य मीठी
लगती है, परन्तु परिणाममें सर्वनाश करनेवाली है ॥ १२ ॥ उस तीव्र मदिराके
पानसे सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घंमडी वीर एक-दूसरेसे लडऩे-झगडऩे लगे। सच
पूछो तो श्रीकृष्णकी मायासे वे मूढ़ हो रहे थे ॥ १३ ॥ उस समय वे क्रोधसे भरकर
एक-दूसरेपर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले,गदा, तोमर
और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे वहाँ समुद्रतटपर ही एक-दूसरेसे भिड़ गये ॥ १४ ॥
मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैंसों
और मनुष्योंपर भी सवार होकर एक-दूसरेको बाणोंसे घायल करने लगे—मानो जंगली हाथी एक-
दूसरेपर दाँतोंसे चोट कर रहे हों। सबकी सवारियोंपर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपसमें उलझ रहे थे ॥ १५ ॥ प्रद्युम्र साम्बसे, अक्रूर भोजसे, अनिरुद्ध सात्यकिसे, सुभद्र संग्रामजित्से, भगवान् श्रीकृष्णके भाई गद उसी नामके उनके पुत्रसे और सुमित्र
सुरथसे युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयङ्कर योद्धा थे और क्रोधमें भरकर एक दूसरेका
नाश करनेपर तुल गये थे ॥ १६ ॥ इनके अतिरिक्त निशठ,
उल्मुक, सहस्रजित्, शतजित् और भानु आदि यादव भी एक- दूसरेसे गुँथ गये। भगवान्
श्रीकृष्णकी मायाने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था,
इधर मदिराके नशेने भी इन्हें अंधा बना दिया था ॥ १७ ॥ दाशाहर्, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशोंके लोग सौहार्द और प्रेमको भुलाकर आपसमें
मार-काट करने लगे ॥ १८ ॥ मूढ़तावश पुत्र पिताका,
भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, मित्र मित्रका, सुहृद् सुहृद्का, चाचा भतीजेका तथा एक गोत्रवाले आपसमें एक-दूसरेका खून करने लगे ॥
१९ ॥ अन्तमें जब उनके सब बाण समाप्त हो गये,
धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने
हाथोंसे समुद्रतटपर लगी हुई एरका नामकी घास उखाडऩी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियोंके शापके कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसलके चूरेसे पैदा हुई
थी ॥ २० ॥ हे राजन् ! उनके हाथोंमें आते ही वह घास वज्रके समान कठोर मुद्गरोंके
रूपमें परिणत हो गयी। अब वे रोषमें भरकर उसी घासके द्वारा अपने विपक्षियोंपर
प्रहार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें मना किया,
तो उन्होंने उनको और बलरामजीको भी अपना शत्रु समझ लिया। उन
आततायियोंकी बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारनेके लिये उनकी ओर दौड़
पड़े ॥ २१-२२ ॥ कुरुनन्दन ! अब भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोधमें भरकर
युद्धभूमिमें इधर-उधर विचरने और मुट्ठी-की-मुट्ठी एरका घास उखाड़-उखाडक़र उन्हें
मारने लगे। एरका घासकी मुट्ठी ही मुद्गरके समान चोट करती थी ॥ २३ ॥ जैसे बाँसोंकी
रगड़से उत्पन्न होकर दावानल बाँसोंको ही भस्म कर देता है,
वैसे ही ब्रह्मशापसे ग्रस्त और भगवान् श्रीकृष्णकी मायासे मोहित
यदुवंशियोंके स्पद्र्धामूलक क्रोधने उनका ध्वंस कर दिया ॥ २४ ॥ जब भगवान्
श्रीकृष्णने देखा कि समस्त यदुवंशियोंका संहार हो चुका,
तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोषकी साँस ली कि पृथ्वीका बचा-खुचा भार
भी उतर गया ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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