मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यदुकुलका संहार

 

रामः समुद्र वेलायां योगमास्थाय पौरुषम्

तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि २६

रामनिर्याणमालोक्य भगवान्देवकीसुतः

निषसाद धरोपस्थे तुष्णीमासाद्य पिप्पलम् २७

बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया

दिशो वितिमिराः कुर्वन्विधूम इव पावकः २८

श्रीवत्साङ्कं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्

कौशेयाम्बरयुग्मेन परिवीतं सुमङ्गलम् २९

सुन्दरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुन्तलमण्डितम्

पुण्डरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३०

कटिसूत्रब्रह्मसूत्र किरीटकटकाङ्गदैः

हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम् ३१

वनमालापरीताङ्गं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः

कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पङ्कजारुणम् ३२

मुषलावशेषायःखण्ड कृतेषुर्लुब्धको जरा

मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशङ्कया ३३

चतुर्भुजं तं पुरुषं दृष्ट्वा स कृतकिल्बिषः

भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः ३४

अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन

क्षन्तुमर्हसि पापस्य उत्तमःश्लोक मेऽनघ ३५

यस्यानुस्मरणं नृणामज्ञानध्वान्तनाशनम्

वदन्ति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो ३६

तन्माऽऽशु जहि वैकुण्ठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्

यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रमम् ३७

यस्यात्मयोगरचितं न विदुर्विरिञ्चो

रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये

त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदञ्जः

किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः ३८

 

श्रीभगवानुवाच

मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे

याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम् ३९

इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा

त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ ४०

दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्

वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ ४१

तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं

ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्

स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो

रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः ४२

अपश्यतस्त्वच्चरणाम्बुजं प्रभो दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा

दिशो न जाने न लभे च शान्तिं यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे ४३

इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः

खमुत्पपात राजेन्द्र साश्वध्वज उदीक्षतः ४४

तमन्वगच्छन्दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च

तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः ४५

गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः

सङ्कर्षणस्य निर्याणं बन्धुभ्यो ब्रूहि मद्दशाम् ४६

द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिश्च स्वबन्धुभिः

मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति ४७

स्वं स्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः

अर्जुनेनाविताः सर्व इन्द्र प्रस्थं गमिष्यथ ४८

त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः

मन्मायारचितामेतां विज्ञयोपशमं व्रज ४९

इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः

तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम् ५०

 

परीक्षित्‌ ! बलरामजीने समुद्रतटपर बैठकर एकाग्रचित्तसे परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया ॥ २६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदमें लीन हो गये, तब वे एक पीपलके पेडक़े तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये ॥ २७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस समय अपनी अङ्गकान्तिसे देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूमसे रहित अग्रिके समान दिशाओंको अन्धकार-रहित—प्रकाशमान बना रहे थे ॥ २८ ॥ वर्षाकालीन मेघके समान साँवले शरीरसे तपे हुए सोनेके समान ज्योति निकल रही थी। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बरकी धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मङ्गलमय रूप था ॥ २९ ॥ मुखकमलपर सुन्दर मुसकान और कपोलोंपर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमलके समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ ३० ॥ कमरमें करधनी, कंधेपर यज्ञोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें बाजूबंद, वक्ष:स्थलपर हार, चरणोंमें नूपुर, अँगुलियोंमें अँगूठियाँ और गलेमें कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी ॥ ३१ ॥ घुटनोंतक वनमाला लटकी हुई थी। शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभुकी सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान्‌ अपनी दाहिनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे लाल-लाल तलवा रक्त कमलके समान चमक रहा था ॥ ३२ ॥

परीक्षित्‌ ! जरा नामका एक बहेलिया था। उसने मूसलके बचे हुए टुकड़ेसे अपने बाणकी गाँसी बना ली थी। उसे दूरसे भगवान्‌का लाल-लाल तलवा हरिनके मुखके समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाणसे बींध दिया ॥ ३३ ॥ जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे ! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डरके मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर सिर रखकर धरतीपर गिर पड़ा ॥ ३४ ॥ उसने कहा—‘हे मधुसूदन ! मैंने अनजानमें यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ३५ ॥ सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो ! महात्मालोग कहा करते हैं कि आपके स्मरणमात्रसे मनुष्योंका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेदकी बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया ॥ ३६ ॥ वैकुण्ठनाथ ! मैं निरपराध हरिणोंको मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जानेपर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषोंका ऐसा अपराध न करूँगा ॥ ३७ ॥ भगवन् ! सम्पूर्ण विद्याओंके पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमायाका विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी मायासे आवृत है। ऐसी अवस्थामें हमारे- जैसे पापयोनि लोग उसके विषयमें कह ही क्या सकते हैं ? ॥ ३८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—हे जरे ! तू डर मत, उठ-उठ ! यह तो तूने मेरे मनका काम किया है। जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोंको होती है ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छासे शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याधको यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमानपर सवार होकर स्वर्गको चला गया ॥ ४० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णका सारथि दारुक उनके स्थानका पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसीकी गन्धसे युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होनेके स्थानका अनुमान लगाकर सामनेकी ओर गया ॥ ४१ ॥ दारुकने वहाँ जाकर देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पीपलके वृक्षके नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें संलग्र हैं। उन्हें देखकर दारुकके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी। नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्‌के चरणोंपर गिर पड़ा ॥ ४२ ॥ उसने भगवान्‌से प्रार्थना की—‘प्रभो ! रात्रिके समय चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर राह चलनेवालेकी जैसी दशा हो जाती है आपके चरणकमलोंका दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओंका ज्ञान है और न मेरे हृदयमें शान्ति ही है’ ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान्‌का गरुड़ध्वज रथ पताका और घोड़ोंके साथ आकाशमें उड़ गया ॥ ४४ ॥ उसके पीछे-पीछे भगवान्‌के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुकके आश्चर्यकी सीमा न रही। तब भगवान्‌ने उससे कहा— ॥ ४५ ॥ ‘दारुक ! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियोंके पारस्परिक संहार, भैया बलरामजीकी परम गति और मेरे स्वधामगमनकी बात कहो ’ ॥ ४६ ॥ उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगोंको अपने परिवारवालोंके साथ द्वारकामें नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहनेपर समुद्र उस नगरीको डुबो देगा ॥ ४७ ॥ सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिताको लेकर अर्जुनके संरक्षणमें इन्द्रप्रस्थ चले जायँ ॥ ४८ ॥ दारुक ! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्मका आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्यको मेरी मायाकी रचना समझकर शान्त हो जाओ’ ॥ ४९ ॥ भगवान्‌का यह आदेश पाकर दारुकने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिरपर रखकर बारंबार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मनसे द्वारकाके लिये चल पड़ा ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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