॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
श्रीभगवान् का स्वधामगमन
श्रीशुक
उवाच -
अथ
तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ।
महेंद्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥ १ ॥
पितरः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः ॥ २ ॥
द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः ।
गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च ॥ ३ ॥
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः ।
कुर्वंतः सङ्कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः ॥
४ ॥
भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः ।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत् ॥
५ ॥
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणा ध्यान मङ्गलम् ।
योगधारणयाऽऽग्नेय्या दग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥
६ ॥
दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात् ।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं
ययुः ॥ ७ ॥
देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि ।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः ॥ ८ ॥
सौदामन्या यथाऽऽकाशे यांत्या हित्वाभ्रमण्डलम् ।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैः तथा कृष्णस्य दैवतैः ॥
९ ॥
ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः ।
विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वं स्वं लोकं
ययुस्तदा ॥ १० ॥
राजन्
परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य ।
सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते
संहृत्य चात्ममहिनोपरतः स आस्ते ॥ ११ ॥
मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम् ।
जिग्येंऽतकांतकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन् मृगयुं सदेहम् ॥ १२ ॥
तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्ययेषु
अनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक् ।
नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन् ॥ १३ ॥
य
एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम् ।
प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या
तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि
ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम-प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे
वहाँ आये। वे सभी भगवान् श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे।
उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान्पर पुष्पोंकी
वर्षा कर रहे थे ॥ १—४ ॥ सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने
विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान
नेत्र बंद कर लिये ॥ ५ ॥ भगवान्का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मङ्गलमय
आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है;
इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्रिदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा
उसको जलाया नहीं, सशरीर
अपने धाममें चले गये ॥ ६ ॥ उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी
वर्षा होने लगी। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य,धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ॥ ७ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी गति मन
और वाणीके परे है; तभी
तो जब भगवान् अपने धाममें प्रवेश करने लगे,
तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही
विस्मय हुआ ॥ ८ ॥ जैसे बिजली मेघमण्डलको छोडक़र जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते,
वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न
जान सके ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी और भगवान् शङ्कर आदि देवता भगवान्की यह परमयोगमयी गति
देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये ॥ १० ॥
परीक्षित् ! जैसे नट अनेकों
प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप;
वैसे ही भगवान्का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है—
अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते
हैं और अन्तमें संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते
हैं ॥ ११ ॥ सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था,
परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर
ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी
शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ,
उन्होंने कालोंके महाकाल भगवान् शङ्करको भी युद्धमें जीत लिया और
अत्यन्त अपराधी—अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया।
प्रिय परीक्षित् ! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख
सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे ॥ १२ ॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण
जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण हैं,
और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने
शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस
मनुष्य-शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषोंके लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न
करें ॥ १३ ॥ जो पुरुष प्रात:काल उठकर भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका
एकाग्रता और भक्तिके साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान् का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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