॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीभगवान् का स्वधामगमन
दारुको
द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः ।
पतित्वा चरणावस्रैः न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः ॥
१५ ॥
कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप ।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः
शोकविर्मूर्च्छिताः ॥ १६ ॥
तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः ।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम् ॥ १७ ॥
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ ।
कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम् ॥
१८ ॥
प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद् विरहातुराः ।
उपगुह्य पतींस्तात चितां आरुरुहुः स्त्रियः ॥ १९
॥
रामपत्न्यश्च तद्देहं उपगुह्याग्निमाविशन् ।
वसुदेवपत्न्यस्तद्गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः
स्नुषाः ।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्याः
तदात्मिकाः ॥ २० ॥
अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः ।
आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः ॥ २१
॥
बंधूनां नष्टगोत्राणां अर्जुनः सांपरायिकम् ।
हतानां कारयामास यथावद् अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥
द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत्
क्षणात् ।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद् भगवदालयम् ॥ २३ ॥
नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः ।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ २४ ॥
स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः ।
इंद्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ॥
२५ ॥
श्रुत्वा सुहृद् वधं राजन् अर्जुनात्ते पितामहाः
।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम् ॥
२६ ॥
य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च ।
कीर्तयेत् श्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः
प्रमुच्यते ॥ २७ ॥
इत्थं
हरेर्भगवतो रुचिरावतार
वीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि ।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥ २८ ॥
इधर दारुक भगवान् श्रीकृष्णके
विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर-गिरकर
उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके
विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुखी हुए और मारे शोकके
मूर्च्छित हो गये ॥ १६ ॥ भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर
पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ॥ १७ ॥ देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न
देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये ॥ १८ ॥ उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं
अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे
लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं ॥ १९ ॥ बलरामजीकी पत्नियाँ उनके
शरीरको, वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान्की पुत्रवधुएँ अपने
पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयीं। भगवान् श्रीकृष्णकी रुक्मिणी
आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मग्न होकर अग्नि में प्रविष्ट हो गयीं ॥ २० ॥
परीक्षित् ! अर्जुन अपने प्रियतम
और सखा भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको
सँभाला ॥ २१ ॥ यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमश: विधिपूर्वक करवाया ॥ २२ ॥ महाराज !
भगवान् के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णका निवास-स्थान छोडक़र एक
ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी ॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा
निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-तापोंका नाश करनेवाला और
सर्वमङ्गलोंको भी मङ्गल बनानेवाला है ॥ २४ ॥ प्रिय परीक्षित् ! पिण्डदानके अनन्तर
बची-खुची स्त्रियों, बच्चों
और बूढ़ोंको लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्धके
पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया ॥ २५ ॥ राजन् ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि
पाण्डवोंको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब
उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की ॥ २६
॥ मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला
सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है,
वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! जो मनुष्य
इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्यमाधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी
रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित
परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला
आदिका सङ्कीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें
पराभक्ति प्राप्त करता है ॥ २८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
इति एकादश स्कन्ध समाप्त ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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