सोमवार, 19 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– पाँचवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धपाँचवाँ अध्याय

 

श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश

 

 श्रीशुक उवाच

 अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः ।

 यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्‌भवः ॥ १ ॥

 त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।

 न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्‌क्ष्यसि ॥ २ ॥

 न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान् ।

 बीजाङ्‌कुरवद् देहादेः व्यतिरिक्तो यथानलः ॥ ३ ॥

 स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पञ्चत्वाद्यात्मनः स्वयम् ।

 यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः ॥ ४ ॥

 घटे भिन्ने घटाकाश आकाशः स्याद् यथा पुरा ।

 एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्यते पुनः ॥ ५ ॥

 मनः सृजति वै देहान् गुणान् कर्माणि चात्मनः ।

 तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः ॥ ६ ॥

 स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्नि संयोगो यावदीयते ।

 ततो दीपस्य दीपत्वं एवं देहकृतो भवः ।

 रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति ॥ ७ ॥

 न तत्रात्मा स्वयंज्योतिः यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः ।

 आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनन्तोपमस्ततः ॥ ८ ॥

 एवं आत्मानमात्मस्थं आत्मनैवामृश प्रभो ।

 बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया ॥ ९ ॥

 चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः ।

 मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम् ॥ १० ॥

 अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।

 एवं समीक्ष्य चात्मानं आत्मन्याधाय निष्कले ॥ ११ ॥

 दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः ।

 न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः ॥ १२ ॥

 एतत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान् नृप ।

 हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्‌ ! इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरिसे पृथक् नहीं हैं, उन्हींकी प्रसाद-लीला और क्रोध-लीलाकी अभिव्यक्ति हैं ॥ १ ॥ हे राजन् ! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे—यह बात नहीं है ॥ २ ॥ जैसे बीजसे अङ्कुर और अङ्कुरसे बीजकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देहसे दूसरे देहकी और दूसरे देहसे तीसरेकी उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसीसे उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकोंके शरीरके रूपमें उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सर्वथा अलग रहती है—लकड़ीकी उत्पत्ति और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदिसे सर्वथा अलग हो ॥ ३ ॥ स्वप्नावस्थामें ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशानमें जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीरकी ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्माकी नहीं। देखनेवाला तो उन अवस्थाओंसे सर्वथा परे, जन्म और मृत्युसे रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है ॥ ४ ॥ जैसे घड़ा फूट जानेपर आकाश पहलेकी ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशताकी निवृत्ति हो जानेसे लोगोंको ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाशसे मिल गया है—वास्तवमें तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जानेपर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तवमें तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी ॥ ५ ॥ मन ही आत्माके लिये शरीर, विषय और कर्मोंकी कल्पना कर लेता है; और उस मनकी सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तवमें माया ही जीवके संसार-चक्रमें पडऩेका कारण है ॥ ६ ॥ जबतक तेल, तेल रखनेका पात्र, बत्ती और आगका संयोग रहता है, तभीतक दीपकमें दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जबतक आत्माका कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यासके साथ सम्बन्ध रहता है तभीतक उसे जन्म-मृत्युके चक्र संसारमें भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणकी वृत्तियोंसे उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है ॥ ७ ॥ परन्तु जैसे दीपकके बुझ जानेसे तत्त्वरूप तेजका विनाश नहीं होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी स्वयंप्रकाश आत्माका नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाशके समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्माकी उपमा आत्मा ही है ॥ ८ ॥

हे राजन् ! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धिको परमात्माके चिन्तनसे भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तरमें स्थित परमात्माका साक्षात्कार करो ॥ ९ ॥ देखो, तुम मृत्युओंकी भी मृत्यु हो ! तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मणके शापसे प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षककी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओंका समूह भी तुम्हारे पासतक न फटक सकेंगे ॥ १० ॥ तुम इस प्रकार अनुसंधान—चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमें स्थित कर लो ॥ ११ ॥ उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठोंके कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखोंसे तुम्हारे पैरोंमें डस ले—कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्मस्वरूपमें स्थित होकर इस शरीरको—और तो क्या, सारे विश्वको भी अपनेसे पृथक् न देखोगे ॥ १२ ॥ आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित्‌ ! तुमने विश्वात्मा भगवान्‌की लीलाके सम्बन्धमें जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे ब्रह्मोपदेशो नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करणपुस्तककोड 1535 से 



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