सोमवार, 19 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धछठा अध्याय (पोस्ट०१)

 

परीक्षित्‌ की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

 

सूत उवाच

एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्

व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन

तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना

बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः १

 

राजोवाच

सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना

श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः २

नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्

अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ३

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्

यस्यां खलूत्तमःश्लोको भगवाननवर्ण्यते ४

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्

प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ५

अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाचं यच्छाम्यधोक्षजे

मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ६

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया

भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ७

 

सूत उवाच

इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः

जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः ८

परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना

समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः ९

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः

ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः १०

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना

हन्तुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम् ११

तं तर्पयित्वा द्र विणैर्निवर्त्य विषहारिणम्

द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम् १२

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना

बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम् १३

हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः

विस्मिता ह्यभवन्सर्वे देवासुरनरादयः १४

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः

ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः १५

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्

यथाजुहाव सन्क्रुद्धो नागान्सत्रे सह द्विजैः १६

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान्महोरगान्

दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ १७

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्

उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः १८

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम्

तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ १९

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः

सहेन्द्र स्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते २०

तच्छ्रुत्वाजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे

तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता २१

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः

बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः २२

तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात्

विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः २३

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट्

अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः २४

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा

राजंस्ततोऽन्यो नास्त्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः २५

सर्पचौराग्निविद्युद्भ्यः क्षुत्तृद्व्याध्यादिभिर्नृप

पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्क्त आरब्धकर्म तत् २६

तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम्

सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते २७

 

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान्‌के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित्‌ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अञ्जलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्‌ने कहा—भगवन् ! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान्‌ श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ २ ॥ संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दु:खोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवत महापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान्‌ श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ॥ ४ ॥ भगवन् ! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्तिस्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ ॥ ६ ॥ आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान्‌के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्‌ने भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित्‌से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये ॥ ८ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्र हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूँठ हो ॥ ९ ॥ उन्होंने गङ्गाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ॥१०॥

 

शौनकादि ऋषियो ! मुनिकुमार शृङ्गीने क्रोधित होकर परीक्षित्‌को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित्‌को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा ॥ ११ ॥ कश्यप ब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा-धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित्‌के पास गया और उन्हें डस लिया ॥ १२ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया ॥ १३ ॥ पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित्‌की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ॥ १४ ॥ देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १५ ॥

जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सर्पोंका अग्निकुण्डमें हवन करने लगा ॥ १६ ॥ तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प-सत्रकी प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया ॥ १७ ॥ बहुत सर्पोंके भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित्‌नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो ! अबतक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है ?’ ॥ १८ ॥ ब्राह्मणोंने कहा—‘राजेन्द्र ! तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो ! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अग्नि में गिरा देते ?’ ॥ २० ॥ जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा—‘रे तक्षक ! तू मरुद्गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’ ॥ २१ ॥ जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान—स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा ॥ २२ ॥ अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्रिकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा— ॥ २३ ॥ ‘नरेन्द्र ! सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है ॥ २४ ॥ राजन् ! जगत्के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दु:ख नहीं दे सकता ॥ २५ ॥ जनमेजय ! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध- कर्मका ही उपभोग करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पोंको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 



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