॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०२)
परीक्षित् की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद
सूत उवाच
इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन्वचः
सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम् २८
सैषा विष्णोर्महामाया बाध्ययालक्षणा यया
मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः २९
न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता
मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो
मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत् ३०
न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं
श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं
निषिध्य चोर्मीन्विरमेत तन्मुनिः ३१
परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्य-
न्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः ३२
त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत्परमं पदम्
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम् ३३
अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ३४
नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे
यत्पादाम्बुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम् ३५
श्रीशौनक उवाच
पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः
वेदाश्च कथिता व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः ३६
सूत उवाच
समाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मणः परमेष्ठिनः
हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते ३७
यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मनः
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम् ३८
ततोऽभूत्त्रिवृदॐकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्
यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः ३९
शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्
येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः ४०
स्वधाम्नो ब्राह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम् ४१
तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः ४२
ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः
अन्तस्थोष्मस्वरस्पर्श ह्रस्वदीर्घादिलक्षणम् ४३
तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः
सव्याहृतिकान्सॐकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया ४४
पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्ब्रह्मकोविदान्
ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन् ४५
ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः ४६
क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान्दुर्मेधान्वीक्ष्य कालतः
वेदान्ब्रह्मर्षयो व्यस्यन्हृदिस्थाच्युतचोदिताः ४७
अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन्भगवान्लोकभावनः
ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये ४८
पराशरात्सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम् ४९
ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीरुद्धृत्य वर्गशः
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव ५०
तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः ५१
पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यां उवाच ह
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम् ५२
साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम्
अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे ५३
पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्र प्रमितये मुनिः
बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम् ५४
चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव
पराशरायाग्निमित्र इन्द्र प्रमितिरात्मवान् ५५
अध्यापयत्संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम्
तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान् ५६
शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम्
वात्स्यमुद्गलशालीय गोखल्यशिशिरेष्वधात् ५७
जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्
बलाकपैलजाबाल विरजेभ्यो ददौ मुनिः ५८
बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम्
चक्रे बालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः ५९
बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः
श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते ६०
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! महर्षि बृहस्पतिजीकी
बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र
बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ २८ ॥ ऋषिगण ! (जिससे
विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ,
मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है,
इसीसे भगवान्के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा
शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दु:ख देते और भोगते
हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ (विष्णुभगवान्के
स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी
है— इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भय रूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है।
इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद,
मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि
वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या,
लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें सङ्कल्प-विकल्प करनेवाला मन भी
शान्त हो जाता है ॥ ३० ॥ कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और
उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनोंसे अन्वित अहङ्कारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं,
वह आत्मस्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न
तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहङ्कार आदिका बाध करके
स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है ॥ ३१ ॥ जो मुमुक्षु एवं विचारशील
पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका
निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध
नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान्का
परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार
करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्त:करणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण
हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिङ्गन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं ॥ ३२ ॥
विष्णु- भगवान् का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परम पद
है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके
अन्त:करणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि
पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत्की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी
दुर्जनता है ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न
करे। इस क्षणभङ्गुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे ॥ ३४
॥ भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस
श्रीमद्भागवत महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण
समाप्त करता हूँ ॥ ३५ ॥
शौनकजीने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी ! वेदव्यासजीके
शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने
प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ॥
३६ ॥
सूतजीने कहा—ब्रह्मन् ! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी
पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्र-चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके सङ्घर्षसे रहित एक
अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है,
तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ शौनकजी ! बड़े-बड़े
योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसे अन्त:करणके द्रव्य
(अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट
करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-
मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है ॥ ३८ ॥ उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी
शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी
अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मस्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम
वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके
स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है ॥ ३९ ॥ जब श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त
हो जाती है, तब भी इस ॐकारको—समस्त अर्थोंको प्रकाशित
करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओंमें सबके
अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही
ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है ॥ ४० ॥
ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है। और úकार
ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है ॥ ४१ ॥
शौनकजी ! ॐकारके तीन वर्ण हैं — ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्,
यजु:, साम—इन तीन नामों; भू:, भुव:, स्व:—इन तीन अर्थों
और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन
वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं ॥ ४२ ॥ इसके बाद
सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्त:स्थ (य, र,
ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क से ‘म’ तक) तथा
ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्राय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की ॥
४३ ॥ उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु,
उद्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और
व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रहमर्षि मरीचि आदिको
वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश
करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका
अध्ययन कराया ॥ ४४-४५ ॥ तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक
ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी
रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया ॥ ४६ ॥ जब
ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु, शक्ति
और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें
विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये ॥ ४७ ॥
शौनकजी ! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शङ्कर
आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान्ने धर्मकी रक्षाके लिये
महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार
ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी ! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार
विभाग किये हैं ॥ ४८-४९ ॥ जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर
अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र- समुदायमेंसे
भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्, यजु:, साम और अथर्व—ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने
चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी ॥ ५०-५१ ॥ उन्होंने
‘बह्वृच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी
यजु:संहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोगसंहिता’
जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वाङ्गिरस-संहिता’ का अध्ययन कराया ॥ ५२-५३
॥ शौनकजी ! पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको
और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कल ने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें
अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर
और अग्निमित्र को पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्रप्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषिको
अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि
ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया ॥ ५४—५६ ॥ माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य।
उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल,
शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया
॥ ५७ ॥ शाकल्यके एक और शिष्य थे—जातूकण्र्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग
करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्य बलाक, पैज,
वैताल और विरजको पढ़ाया ॥ ५८ ॥ बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब
शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य
एवं कासारने ग्रहण किया ॥ ५९ ॥ इन ब्रहमर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार
ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजन का इतिहास
श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ॥ ६० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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