मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धछठा अध्याय (पोस्ट०३)

 

परीक्षित्‌ की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

 

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्

यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम् ६१

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत्

चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम् ६२

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया

विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति ६३

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम्

ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान्यजुर्गणान् ६४

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः

तैत्तिरीया इति यजुः शाखा आसन्सुपेशलाः ६५

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मंश्छन्दांस्यधि गवेषयन्

गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम् ६६

श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच

 

ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण काल

स्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु

बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक

एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान

विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति ६७

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवनमहर्

अहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिन

बीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपन मण्डलम् ६८

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनैन्द्रियासु

गणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति ६९

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रह

गिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया परमकारुणिक

ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्माव

स्थने प्रवर्तयति ७०

अवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति परित आशापालैस्

तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः ७१

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिरभिवन्दितम्

अहमयातयामयजुष्काम उपसरामीति ७२

 

सूत उवाच

एवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो रविः

यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः ७३

यजुर्भिरकरोच्छाखा दश पञ्च शतैर्विभुः

जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः ७४

जैमिनेः समगस्यासीत्सुमन्तुस्तनयो मुनिः

सुत्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम् ७५

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्

सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विज ७६

हिरण्यनाभः कौशल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः

शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः ७७

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन्पञ्चशतानि वै

पौष्यञ्ज्यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान्प्रचक्षते ७८

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च

पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम् ७९

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशति संहिताः

शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान् ८०

 

शौनकजी ! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों  का नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित्त करने के लिये एक व्रत का अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ॥ ६१ ॥ वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे  कहा—‘अहो भगवन् ! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालन से लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित्त के  लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ॥ ६२ ॥

याज्ञवल्क्यमुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ ॥ ६३ ॥ याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई ॥ ६४-६५ ॥ शौनकजी ! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान्‌ का उपस्थान करने लगे ॥ ६६ ॥

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं—मैं ॐकारस्वरूप भगवान्‌ सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोंसे असङ्ग रहनेवाले अद्वितीय भगवान्‌ ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे सङ्घटित संवत्सरोंके द्वारा एवं जलके आकर्षण-विकर्षण— आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकोंकी जीवनयात्रा चलाते हैं ॥ ६७ ॥ प्रभो ! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दु:खों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव ! आप सारी सृष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल का पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं ॥ ६८ ॥ आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत्में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं[*] ॥ ६९ ॥ यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पडक़र अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्रसे ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हुआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार, आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ॥ ७० ॥ चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अञ्जलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं ॥ ७१ ॥ भगवन् ! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो ॥ ७२ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान्‌ सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे ॥ ७३ ॥ इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया ॥ ७४ ॥

यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायनने जैमिनि मुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तु मुनि और पौत्र थे सुन्वान् ! जैमिनि मुनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी ॥ ७५ ॥ जैमिनि मुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं ॥ ७६ ॥ सुकर्माके शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया ॥ ७७ ॥ पौष्यञ्जि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हींको प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया ॥ ७८ ॥ पौष्यञ्जिके और भी शिष्य थे—लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमेंसे प्रत्येकने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया ॥ ७९ ॥ हिरण्यनाभका शिष्य था—कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दीं। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ ॥ ८० ॥

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[*] ६७, ६८, ६९ इन तीनों वाक्योंद्वारा क्रमश: गायत्रीमन्त्रके ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’, ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’—इन तीन चरणोंकी व्याख्या करते हुए भगवान्‌ सूर्यकी स्तुति की गयी है।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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