शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 09)

 यदि कोई कहे कि संस्कारों के भेद के लिये पूर्वजन्म को मानने की क्या आवश्यकता है, ईश्वर की इच्छा को ही इसमें हेतु क्यों न मान लिया जाय तो इसका उत्तर यह है कि इस वैचित्र्य का कारण ईश्वर को मानने से उनमें वैषम्य एवं नैर्घण्य (निर्दयता)-का दोष आवेगा। वैषम्य का दोष तो इस बात को लेकर आवेगा कि उन्होंने अपने मन से किसी को सुखी और किसी को दुःखी बनाया और निर्दयता का दोष इसलिये आवेगा कि उन्होंने कुछ जीवों को बेमतलब ही दुःखी बना दिया। ईश्वर में कोई दोष घट नहीं सकता, इसलिये पूर्वकृत कर्मो को ही लोगों के स्वभाव के भेद तथा भोग के वैषम्य में हेतु मानना पड़ेगा। | इन सब युक्तियों से यह सिद्ध होता है कि प्राणियों का पुनर्जन्म होता है। अब जब यह सिद्ध हो गया कि पुनर्जन्म होता है, तब दूसरा प्रश्न यह होता है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को क्या करना चाहिये । विचार करने पर मालूम होता है कि शाश्वत एवं निरतिशय सुख की प्राप्ति तथा दुःखों से सदा के लिये छुटकारा पा जाना ही जीवमात्र का ध्येय है और उसीके लिये मनुष्य को यत्नवान् होना चाहिये। शास्त्रों में पुनर्जन्म को ही दुःखका घर बतलाया है और परमात्मा की प्राप्ति ही इस दुःख से छूटने का एकमात्र उपाय है। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः॥

...(८। १५)

परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझ को प्राप्त होकर दुःखोंके  घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। | इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा की प्राप्ति ही दुःखों से सदा के लिये छूटने का एकमात्र उपाय है और यह मनुष्यजन्म में ही सम्भव है। अतः जो इस जन्म को पाकर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही संसार में धन्य हैं और वे ही बुद्धिमान् एवं चतुर हैं। मनुष्य-जन्म को पाकर जो इसे विषय-भोग में ही गंवा देते हैं, वे अत्यन्त जड़मति हैं और शास्त्रों ने उनको कृतघ्न एवं आत्महत्यारा बतलाया है।

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

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