शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 10)

 

श्रीमद्भागवत में भगवान् उद्धव से कहते हैं-

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं

प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।

मयानुकूलेन नभस्वतेरितम्

पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥

...(११।२०। १७)

'यह मनुष्यशरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का आदिकारण तथा अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी ईश्वर की कृपा से हमारे लिये सुलभ हो गया है; वह इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये सुदृढ़ नौका है, जिसे गुरुरूप नाविक चलाता है और मैं (श्रीकृष्ण) वायुरूप होकर उसे आगे बढ़ानेमें सहायता देता हूँ। ऐसी सुन्दर नौका को पाकर भी जो मनुष्य इस भवसागर को नहीं तरता, वह निश्चय ही आत्माका हनन करनेवाला अर्थात् पतन करनेवाला है।

गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाई।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

...(रामचरित०उत्तर० ४४)

यहाँ यह प्रश्न होता है कि इसके लिये हमें क्या करना चाहिये। इसका उत्तर हमें स्वयं भगवान् के शब्दों में इस प्रकार मिलता है। वे कहते हैं-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

..(गीता ६।५)

मनुष्य को चाहिये कि वह अपने द्वारा अपना संसारसमुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले।

उद्धार का अर्थ है उत्तम गुणों एवं उत्तम भावों का संग्रह एवं उत्तम आचरणों का अनुष्ठान और पतन का अर्थ है दुर्गुण एवं दुराचारों का ग्रहण; क्योंकि इन्हीं से क्रमशः मनुष्य की उत्तम एवं अधम गति होती है। इन्हीं को भगवान् ने क्रमशः दैवी सम्पत्ति एवं आसुरी सम्पत्ति के नाम से गीता के सोलहवें अध्याय में वर्णन किया है और यह भी बतलाया है कि दैवी सम्पत्ति मोक्ष की ओर ले जानेवाली है 'दैवी सम्पद्विमोक्षाय', और आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली अर्थात् बार-बार संसारचक्र में गिरानेवाली है- निबन्धायासुरी मता’ यही नहीं, आसुरी सम्पदावालों के आचरणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि उन अशुभ आचरणवाले द्वेषी, क्रूर (निर्दय) एवं मनुष्यों में अधम पुरुषों को मैं संसार में बार-बार पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियों में गिराता हूँ और जन्म-जन्म में उन योनियों को प्राप्त हुए वे मूढ़ पुरुष मुझे न पाकर उससे भी अधम

गति (घोर नरकों)-को प्राप्त होते हैं।'*

{* तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥}

...(१६। १९-२०)

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम गुण, भाव और आचरण ही ग्रहण करनेयोग्य हैं और दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराचार त्यागनेयोग्य हैं। गीताके १३ वें अध्याय के ७ वें से ११ वें श्लोक तक भगवान् ने इन्हीं को ज्ञान और अज्ञान के नाम से वर्णन किया है। ज्ञान के नाम से वहाँ जिन गुणों का वर्णन किया गया है, वे आत्मा का उद्धार करनेवाले-ऊपर उठानेवाले हैं और इससे विपरीत जो अज्ञान है--'अज्ञानं यदतोऽन्यथा', वह गिरानेवाला-पतन करनेवाला है। | सद्गुण और सदाचार कौन हैं तथा दुर्गुण एवं दुराचार कौन-से हैं, ग्रहण करनेयोग्य आचरण कौन हैं तथा त्याग ने योग्य कौन-से हैं इसका निर्णय हम शास्त्रों द्वारा ही कर सकते हैं। शास्त्र ही इस विषय में प्रमाण हैं।

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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