भगवान् ने भी गीता में कहा है-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
...(१६। २४)
'इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में
शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करनेयोग्य है।
यदि नाना प्रकार के शास्त्रों को देखने से तथा उनमें कहीं-कहीं आये हुए
परस्परविरोधी वाक्यों को पढ़ने से बुद्धि भ्रमित हो जाय और शास्त्र के यथार्थ
तात्पर्य का निर्णय न कर सके तो पूर्वकाल में हमारी दृष्टि में शास्त्र के मर्म को
जाननेवाले जो भी महापुरुष हो गये हों उनके बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण करना
चाहिये। शास्त्रों की भी यही आज्ञा
है। महाभारतकार कहते हैं-
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां ।
महाजनो येन गतः स पन्थाः॥
…(वन० ३१३। ११७)
‘धर्म के विषय में तर्क की कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं,
श्रुतियाँ भिन्न-भिन्न तात्पर्यवाली हैं तथा ऋषिमुनि भी कोई
एक नहीं हुआ है जिससे उसी के मत को प्रमाणस्वरूप माना जाय, धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है,
अर्थात् धर्म की गति अत्यन्त गहन है,
इसलिये (मेरी समझ में) जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो,
वही मार्ग है, अर्थात् ऐसे महापुरुष का अनुकरण करना ही धर्म है।' उन्हीं के आचरण को अपना आदर्श बना लेना चाहिये और उसी के अनुसार चलने की
चेष्टा करनी चाहिये।
यदि किसी को ऐसे महापुरुषों के मार्ग में भी संशय हो तो फिर उसे यही उचित है
कि वह वर्तमानकाल के किसी जीवित सदाचारी महात्मा पुरुष को-जिसमें भी उसकी श्रद्धा
हो और जिसे वह श्रेष्ठ महापुरुष समझता हो अपना आदर्श बना ले और उनके बतलाये हुए
मार्ग को ग्रहण करे, उनके आदेश के
अनुसार चले । और यदि किसी पर भी विश्वास न हो तो अपने अन्तरात्मा,
अपनी बुद्धि को ही पथप्रदर्शक बना ले-एकान्तमें बैठकर
विवेकवैराग्ययुक्त बुद्धिसे शान्ति एवं धीरज के साथ स्वार्थत्यागपूर्वक
निष्पक्षभाव से विचार करे कि मेरा ध्येय क्या है, मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। इस प्रकार
अपने हिताहित का विचार करके संसार में कौन-सी वस्तु मेरे लिये ग्राह्य है और
कौन-सी अग्राह्य है, इसका निर्णय कर
ले और फिर दृढतापूर्वक उस निश्चयपर स्थित हो जाय। जो मार्ग उसे ठीक मालूम हो,
उसपर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जाय और जो आचरण उसे निषिद्ध जंचे
उन्हें छोड़ने की प्राणपण से चेष्टा करे, भूलकर भी उस ओर न जाय। इस प्रकार निष्पक्षभाव से विचार करनेपर,
अन्तरात्मा से पूछनेपर भी उसे भीतर से यही उत्तर मिलेगा कि
अहिंसा,
सत्य, ब्रह्मचर्य और परोपकार आदि ही श्रेष्ठ ; हिंसा,असत्य,
व्यभिचार और दूसरे का अनिष्ट आदि करने के लिये उसका
अन्तरात्मा उसे कभी न कहेगा। नास्तिक से-नास्तिक को भी भीतर से यही आवाज सुनायी
देगी। इस प्रकार अपना लक्ष्य स्थिर कर लेने के बाद फिर कभी उसके विपरीत आचरण न
करे। अच्छी प्रकार निर्धारित किये हुए अपने ध्येय के अनुसार चलना ही आत्मा का
उत्थान करना है और उस निश्चयके अनुसार न चलकर उसके विपरीत मार्गपर चलना ही उसका
पतन है। जो आचरण अपनी दृष्टि में तथा दूसरों की दृष्टि में भी हेय है,
उसे जान-बूझकर करना मानो अपने-आप ही फाँसी लगाकर मरना,
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना, अपने ही हाथों अपना अहित करना है। इसीलिये भगवान् कहते हैं 'नात्मानमवसादयेत्'
(गीता ६।५), जान-बूझकर अपनेआप अपना पतन न करे। | हमारे शास्त्रों में मन, वाणी और शरीर से होनेवाले कुछ दोष गिनाये हैं और साथ ही मन,
वाणी और शरीर के पाँच-पाँच तप भी बतलाये हैं। आत्मा का
उद्धार चाहने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह उपर्युक्त मन, वाणी और शरीर के दोषों का त्याग करे और शारीरिक,
वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के तप का आचरण करे।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
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श्रीहरि
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