॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व
भारत॥ १८॥
अविनाशी, जाननेमें न आनेवाले और नित्य रहनेवाले इस शरीरीके ये देह अन्तवाले
कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो ।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें शरीरीको अविनाशी बताकर
अब भगवान् यह कहते हैं कि मात्र शरीर नाशवान् हैं,
मरनेवाले हैं । तात्पर्य है
कि मिला हुआ तथा बिछुड़नेवाला शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । शरीर तो केवल कर्म-सामग्री, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है । अपने लिये उसका किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं है
। अतः शरीरके नाशसे अपनी कोई हानि नहीं
होती ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🪷🥀🪷जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय