॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न
कश्चित्कर्तुमहर्ति॥ १७॥
अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।
व्याख्या—
जिस सत्-तत्त्वका अभाव विद्यमान नहीं
है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।
अविनाशी होने के कारण तथा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त होनेके कारण उसका कभी
कोई नाश कर सकता ही नहीं । नाश उसीका होता
है, जो नाशवान् तथा एक देशमें स्थित हो ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🌼🍃🌻जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय