॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥ १६॥
असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं
है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है।
तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।
व्याख्या—
दो विभाग हैं- चेतन-विभाग (‘है’) और
जड़-विभाग (नहीं) । परमात्मा तथा सम्पूर्ण
जीव चेतन-विभागमें है और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं । जड़ और चेतन – दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध
है । यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्वास
एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये ‘है’ पर
विश्वास होते ही ‘नहीं’ का
विश्वास निर्जीव हो जाता है और ‘नहीं’ से विश्वास उठते ही ‘है’ का विश्वास सजीव हो जाता है ।
सच्चा साधक एक ‘है’ (सत्-तत्त्व) के सिवाय अन्य (असत्) की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता
। अन्यकी सत्ता स्वीकार न करने पर साधकमें
स्वतः ‘है’ की
स्मृति जाग्रत् हो जाती है । ‘है’ की
स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्नता हो जाती है ।
कोई मनुष्य ‘नहीं’ को
कितनी ही दृढतासे स्वीकार करे, उसकी
निवृत्ति होती ही है, प्राप्ति
होती ही नहीं । परन्तु ‘है’ को
कितना ही अस्वीकार करे, उसकी
प्राप्ति होती ही है । उसकी विस्मृति तो
हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र ‘है’ के
सिवाय कुछ नहीं है- यह सार बात है, जिसका
महापुरुषों ने अनुभव किया है ।
संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके
भावमें भी अभाव है, अभावमें
भी अभाव है । परन्तु परमात्मामें भाव ही
मुख्य है । उनके अभावमें में भी भाव है, भावमें भी भाव है । संसार
दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका
‘वियोग’ ही
मुख्य है । परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका
‘योग’ ही
मुख्य है। संसारका नित्यवियोग है । परमात्माका नित्ययोग है ।
ॐ तत्सत्
!
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🌺🥀🌷जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय