गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०९)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥ १६॥

 

असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का  अभाव विद्यमान नहीं है। तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।

 

व्याख्या

 

दो विभाग हैं- चेतन-विभाग (है’) और जड़-विभाग (नहीं) ।  परमात्मा तथा सम्पूर्ण जीव चेतन-विभागमें है और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं ।  जड़ और चेतन – दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है ।  यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्वास  एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये हैपर विश्वास  होते ही नहींका विश्वास निर्जीव हो जाता है और नहींसे विश्वास उठते ही हैका विश्वास सजीव हो जाता है ।  सच्चा साधक एक है’ (सत्‌-तत्त्व) के सिवाय अन्य (असत्‌) की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता ।  अन्यकी सत्ता स्वीकार न करने पर साधकमें स्वतः हैकी स्मृति जाग्रत्‌ हो जाती है ।  हैकी स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्नता हो जाती है ।

 

         कोई मनुष्य नहींको कितनी ही दृढतासे स्वीकार करे, उसकी निवृत्ति होती ही है, प्राप्ति होती ही नहीं ।   परन्तु हैको कितना ही अस्वीकार करे, उसकी प्राप्ति होती ही है ।  उसकी विस्मृति तो हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र हैके सिवाय कुछ नहीं है- यह सार बात है, जिसका महापुरुषों ने अनुभव किया है ।

 

         संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके भावमें भी अभाव है, अभावमें भी अभाव है ।  परन्तु परमात्मामें भाव ही मुख्य है ।  उनके अभावमें में भी भाव है, भावमें भी भाव है ।  संसार दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका वियोगही मुख्य है ।  परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका योगही मुख्य है।  संसारका नित्यवियोग है ।  परमात्माका नित्ययोग है ।

 

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



1 टिप्पणी:

  1. 🌺🥀🌷जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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