गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥

 

कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करतेवह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।

 

व्याख्या

 

मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है ।  यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है ।  अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल उत्पन्न होती है ।  इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं ।  इसलिये इस भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है ।  इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक प्रदान किया है ।  जब साधक अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है ।  निर्मम-निरहंकार होते ही साधक मे  समता आजाती है ।

 

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



1 टिप्पणी:

  1. 🌼🍂🌹जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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