॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
१५॥
कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ
अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्यको ये मात्रास्पर्श
(पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
व्याख्या—
मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है । यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल
उत्पन्न होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक
तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं । इसलिये इस
भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है । इसको मिटानेके लिये भगवान्ने मनुष्यको विवेक
प्रदान किया है । जब साधक अपने विवेकको
महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है ।
निर्मम-निरहंकार होते ही साधक मे
समता आजाती है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष आगामी
पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🌼🍂🌹जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय