॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय
शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत॥ १४॥
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय
(जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख
देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम
सहन करो।
व्याख्या—
संसारकी समस्त परिस्थितियाँ
आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली
हैं । मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी
परिस्थितिबनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये ।
परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह
प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है । अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक
स्वीकार करनी चाहिये । निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है
। इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति
होती है । देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है,
क्रिया
गौण । पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है,
वस्तु
है ही नहीं ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🌻🪻🌻जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय