रविवार, 8 अक्टूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥ ४४॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:॥ ४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥ ४६॥

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥ ४७॥

हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं।  अगर ये हाथोंमें शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा  शस्त्ररहित मुझे मार भी दें तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा। 

संजय बोले—

ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथ के मध्यभाग में बैठ गये।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम
प्रथमोऽध्याय:॥ १॥

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


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