गुरुवार, 28 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

श्रीब्रह्मोवाच -
एताः कथं व्रजे भाव्याः केन पुण्येन कैर्वरैः ।
दुर्लभं हि पदं तासां योगिभिः पुरुषोत्तम ॥१८॥


श्रीभगवानुवाच -
श्वेतद्वीपे च भूमानं श्रुतयस्तुष्टुवुः परम् ।
उशतीभिर्गिराभिश्च प्रसन्नोऽभूत्सहस्रपात् ॥१९॥


श्रीहरिरुवाच -
वरं वृणीत यूयं वै यन्मनोवाञ्छितं महत् ।
येषां प्रसन्नोऽहं साक्षात्तेषां किं दुर्लभं हि तत् ॥२०॥


श्रुतय ऊचुः -
वाङ्मनोगोचरातीतं ततो न ज्ञायते तु तत् ।
आनन्दमात्रमिति यद्‌वदंतीह पुराविदः ॥२१॥
तद्‌रूपं दर्शयास्माकं यदि देयो वरो हि नः ।
श्रुत्वैतद्दर्शयामास स्वं लोकं प्रकृतेः परम् ॥२२॥
केवलानुभवानन्दमात्रमक्षरमव्ययम् ।
यत्र वृंदावनं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ॥२३॥
मनोरमनिकुञ्जाढ्यं सर्वर्तुसुखसंयुतम् ।
यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः ॥२४॥
रत्‍नधातुमयः श्रीमान् सुपक्षिगणसंवृतः ।
यत्र निर्मलपानीया कालिन्दी सरितां वरा ।
रत्‍नबद्धोभयतटी हंसपद्मादिसंकुला ॥२५॥
नानारासरसोन्मत्तं यत्र गोपीकदंबकम् ।
तत्कदंबकमध्यस्थः किशोराकृतिरच्युतः ॥२६॥
दर्शयित्वा च ताः प्राह ब्रूत किं करवाणि वः ।
दृष्टो मदीयो लोकोऽयं यतो नास्ति परं वरम् ॥२७॥


श्रीश्रुतय ऊचुः -
कन्दर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनांसि नः ।
कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षिप्तान्यसंशयम् ॥२८॥
यया त्वल्लोकवासिन्यः कामतत्त्वेन गोपिकाः ।
भजन्ति रमणं मत्त्वा चिकीर्षाजनिनस्तथा ॥२९॥


श्रीहरिरुवाच -
दुर्लभो दुर्घटश्चैव युष्माकं तु मनोरथः ।
मयानुमोदितः सम्यक् सत्यो भवितुमर्हति ॥३०॥
आगामिनि विरिंचौ तु जाते सृष्ट्यर्थमुद्यते ।
कल्पे सारस्वतेऽतीते व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥३१॥
पृथिव्यां भारते क्षेत्रे माथुरे मम मण्डले ।
वृन्दावने भविष्यामि प्रेयान्वो रासमण्डले ॥३२॥
जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
मयि संप्राप्य सर्वा हि कृतकृत्या भविष्यथ ॥३३॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा- पुरुषोत्तम ! इन स्त्रियोंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है तथा इन्हें कौन-कौन-से वर मिल चुके हैं, जिनके फलस्वरूप ये व्रज में निवास करेंगी ? कारण, आपका वह स्थान तो योगियों के लिये भी दुर्लभ है ॥ १८ ॥

श्रीभगवान् बोले- पूर्वकालमें श्रुतियों ने श्वेतद्वीपमें जाकर वहाँ मेरे स्वरूपभूत भूमा - ( विराट् पुरुष या परब्रह्म ) का मधुर वाणी में स्तवन किया । तब सहस्रपाद विराट् पुरुष प्रसन्न हो गये और बोले ॥ १९ ॥

श्रीहरिने कहा- श्रुतियो ! तुम्हें जो भी पानेकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। जिनके ऊपर मैं स्वयं प्रसन्न हो गया, उनके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥

श्रुतियाँ बोलीं- भगवन्! आप मन-वाणीसे नहीं जाने जा सकते; अतः हम आपको जाननेमें असमर्थ हैं । पुराणवेत्ता ज्ञानीपुरुष यहाँ जिसे केवल आनन्दमात्र' बताते हैं, अपने उसी रूपका हमें दर्शन कराइये। प्रभो ! यदि आप हमें वर देना चाहते हों तो यही दीजिये ॥ २१॥

श्रुतियों की ऐसी बात सुनकर भगवान् ने  उन्हें अपने दिव्य गोलोकधाम का दर्शन कराया, जो प्रकृतिसे परे है । वह लोक ज्ञानानन्दस्वरूप, अविनाशी तथा निर्विकार है । वहाँ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो कामपूरक कल्पवृक्षों से सुशोभित है ॥ २२-२३ ॥

मनोहर निकुञ्जोंसे सम्पन्न वह वृन्दावन सभी ऋतुओंमें सुखदायी है। वहाँ सुन्दर झरनों और गुफाओंसे सुशोभित 'गोवर्धन' नामक गिरि है । रत्न एवं धातुओंसे भरा हुआ वह श्रीमान् पर्वत सुन्दर पक्षियोंसे आवृत है । वहाँ स्वच्छ जलवाली श्रेष्ठ नदी 'यमुना' भी लहराती है। उसके दोनों तट रत्नोंसे बँधे हैं। हंस और कमल आदिसे वह सदा व्याप्त रहती है ॥ २४-२५ ॥

वहाँ विविध रास-रङ्गसे उन्मत्त गोपियोंका समुदाय शोभा पाता है। उसी गोपी- समुदाय के मध्यभाग में किशोर वय से सुशोभित भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं। उन श्रुतियों को इस प्रकार अपना लोक दिखाकर भगवान् बोले- 'कहो, तुम्हारे लिये अब क्या करूँ ? तुमने मेरा यह लोक तो देख ही लिया, इससे उत्तम दूसरा कोई वर नहीं हैं' ।। २६ - २७॥

श्रुतियोंने कहा— प्रभो! आपके करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर श्रीविग्रहको देखकर हममें कामिनी-भाव आ गया है और हमें आपसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो रही है ! हम विरह-ताप-संतप्त हैं- इसमें संदेह नहीं है। अतः आपके लोकमें रहनेवाली गोपियाँ आपका सङ्ग पानेके लिये जैसे आपकी सेवा करती हैं, हमारी भी वैसी ही अभिलाषा है ।। २८-२९ ।।

श्रीहरि बोले- श्रुतियो ! तुमलोगोंका यह मनोरथ दुर्लभ एवं दुर्घट है; फिर भी मैं इसका भलीभाँति अनुमोदन कर चुका हूँ, अतः वह सत्य होकर रहेगा। आगे होनेवाली सृष्टिमें जब ब्रह्मा जगत्की रचनामें संलग्न होंगे, उस समय सारस्वत- कल्प बीतनेपर तुम सभी श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होओगी । भूमण्डलपर भारतवर्षमें मेरे माथुरमण्डलके अन्तर्गत वृन्दावनमें रासमण्डलके भीतर मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। तुम्हारा मेरे प्रति सुदृढ़ प्रेम होगा, जो सब प्रेमोंसे बढ़कर है। तब तुम सब श्रुतियाँ मुझे पाकर सफल-मनोरथ होओगी ।। ३०-३३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. गोविंद हरे गोपाल हरे
    जय जय प्रभु दीन दयाल हरे
    जय हो राधा रास बिहारी
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    ही नाथ नारायण वासुदेव
    🌹💖🍂🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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