॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम् ।
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् ॥ २० ॥
सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः ।
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित् ॥ २१ ॥
तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम् ।
यत् मे असून् त्यजतः साक्षात् कृष्णो दर्शनमागतः ॥ २२ ॥
(भीष्मपितामह कह रहे हैं) जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ॥ २० ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मामें उन ऊँचे-नीचे कार्योंके कारण कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं होती ॥ २१ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी, देखो तो सही, वे (श्रीकृष्ण) अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समयमें जबकि मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ॥ २२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
💟💖🍂🌹जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
गोविंद गोविंद हरे मुरारे
गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण
गोविंद गोविंद रथांग पाणे
गोविंद दामोदर माधवेति
जय हो मेरे द्वारकानाथ
जय श्री हरि
जवाब देंहटाएं