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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
छठा
अध्याय (पोस्ट 03)
कालनेमि
के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन
शतवारं
चोज्जहार गिरिमुत्पाट्य दैत्यराट् ।
पुनस्तत्र स्थितं रामं क्रोधसंरक्तलोचनम् ॥३२॥
प्रलयार्कप्रभं दृष्ट्वा ननाम शिरसा मुनिम् ।
पुनः प्रदक्षिणीकृत्य तदंघ्र्योर्निपपात ह ॥३३॥
ततः शान्तो भार्गवोऽपि कंसं प्राह महोग्रदृक् ।
हे कीटमर्कटीडिंभ तुच्छोऽसि मशको यथा ॥३४॥
अद्यैव त्वां हन्मि दुष्ट क्षत्रियं वीर्यमानिनम् ।
मत्समीपे धनुरिदं लक्षभारसमं महत् ॥३५॥
इदं च विष्णुना दत्तं शंभवे त्रैपुरे युधि ।
शंभोः करादिह प्राप्तं क्षत्रियाणां वधाय च ॥३६॥
यदि चेदं तनोषि त्वं तदा च कुशलं भवेत् ।
चेदस्य कर्षणं न स्याद्घातयिष्यामि ते बलम् ॥३७॥
श्रुत्वा वचस्तदा दैत्यः कोदण्डं सप्ततालकम् ।
गृहीत्वा पश्यतस्तस्य सज्जं कृत्वाथ लीलया ॥३८॥
आकृष्य कर्णपर्यंतं शतवारं ततान ह ।
प्रत्यञ्चास्फोटनेनैव टङ्कारोऽभूत्तडित्स्वनः ॥३९॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्त लोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन् भूमिमंडले ॥४०॥
धनुः संस्थाप्य तत्कंसो नत्वा नत्वाह भार्गवम् ।
हे देव क्षत्रियो नास्मि दैत्योऽहं ते च किंकरः ॥४१॥
तव दासस्य दासोऽहं पाहि मां पुरुषोत्तम ।
श्रुत्वा प्रसन्नः श्रीरामस्तस्मै प्रादाद्धनुश्च तत् ॥४२॥
श्रीजामदग्न्य उवाच -
यत्कोदण्डं वैष्णवं तद्येन भंगीभविष्यति ।
परिपूर्णतमो नात्र सोऽपि त्वां घातयिष्यति ॥४३॥
दानवराज
कंस ने उस पर्वत को सौ बार उखाड़कर ऊपर को उठा लिया। फिर वहाँ रहनेवाले मुनिवर
परशुरामजी के, जिनके नेत्र क्रोधसे लाल थे और जो
प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे, चरणों में मस्तक
झुकाया और बार-बार उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके दोनों चरणोंमें वह लेट गया। तब
अत्यन्त उग्र दृष्टिवाले परशुरामजीकी क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे बोले- रे कीट !
रे बँदरिया के बच्चे ! तू मच्छर के समान तुच्छ है। तू बलके घमंड में चूर रहनेवाला
दुष्ट क्षत्रिय है । मैं आज ही तुझे मौतके मुखमें भेजता हूँ। देख, मेरे पास यह महान् धनुष है। इसकी गुरुता लाख भार (लगभग तीन लाख मन) के
बराबर है ॥ ३२-३५ ॥
त्रिपुरासुर-
से युद्ध के समय भगवान् विष्णु ने यह धनुष भगवान् शंकर को दिया था । फिर
क्षत्रियों का विनाश करने के लिये यह शंकरजी के हाथ से मुझे प्राप्त हुआ । यदि तू
इसे चढ़ा सका, तब तो कुशल है; यदि नहीं चढ़ा सका तो तेरे सारे बल का विनाश कर दूँगा ' ॥ ३६-३७ ॥
परशुराम
जी की बात सुनकर कंस ने उस धनुष को, जो
सात ताड़ के बराबर लंबा था, उठा लिया और परशुरामजी के
देखते-देखते उसे लीलापूर्वक चढ़ा दिया। फिर कान तक
खींच-खींचकर
उसे सौ बार फैलाया। उसकी प्रत्यञ्चा- के खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान
टंकार शब्द होने लगा । उसकी भीषण ध्वनि से सातों लोकों और पातालोंके साथ पूरा
ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये
और तारागण टूट-टूटकर जमीन पर गिरने लगे। फिर कंस ने धनुष को नीचे रख दिया और
परशुराम जी को बारंबार प्रणाम करके कहा- 'भगवन्! मैं
क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं आपका सेवक दैत्य हूँ । आपके दासोंका दास हूँ। पुरुषोत्तम !
मेरी रक्षा कीजिये।' कंसकी ऐसी प्रार्थना सुनकर परशुरामजी
प्रसन्न हो गये। फिर वह धनुष उन्होंने कंसको ही दे दिया ।। ३८-४२ ॥
परशुरामजी
ने कहा- यह धनुष भगवान् विष्णुका है। इसे जो तोड़ देगा,
वहीं यहाँ साक्षात् परिपूर्णतम पुरुष है । उसी के हाथ से तुम्हारी
मृत्यु होगी ॥ ४३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🪷🍂🥀🪷जय श्री हरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
जय श्री हरि
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