शनिवार, 20 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 04)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान् द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

 

श्रीभगवानुवाच -
इयं च पृश्निः पतिदेवता च
त्वं पूर्वसर्गे सुतपा प्रजार्थी ।
ब्रह्माज्ञया दिव्यतपो युवाभ्यां
कृतं परं निर्जलभोजनाभ्याम् ॥३७॥
कालेषु मन्वन्तरके व्यतीते
तपः परं तत्तपसः प्रजार्थी ।
तदा प्रसन्नो युवयोरभूवं
वरं परं ब्रूत मया तदोक्तम् ॥३८॥
श्रुत्वा युवाभ्यां कथितं तदैव
भूयात्सुतस्त्वत्सदृशः किलावयोः ।
तथास्तु चोक्त्वाथ गते मयि प्रजा-
पती ह्यभूत स्वकृतेन दम्पती ॥३९॥
न मत्समः कोऽपि सुतो जगत्यलं
विचार्य तद्वामभवं परेश्वरः ।
श्रीपृश्निगर्भो भुवि विश्रुतः पुन-
र्द्वितीयकालेऽहमुपेन्द्रवामनः ॥४०॥
तथाऽभवं ह्यद्यतमे परात्परो
नीत्वाऽथ मां प्रापय नन्दमन्दिरम्
अतो न भूयाद्‌भयमौग्रसेनतः
सुतां समादाय सुखी भविष्यथः ॥४१॥


श्रीनारद उवाच -
तूष्णीं भूत्वा हरिस्तत्र तद्‌भूयः पश्यतोस्तयोः ।
दृश्यं ह्यप्रकटं कृत्वा बालोऽभूत्कौ यथा नटः ॥४२॥
प्रेंखे धृत्वाऽथ तं शौरिर्यावद्‌गन्तुं समुद्यतः ।
तवाद्‌व्रजे नन्दपत्‍न्यां योगमायाऽजनि स्वतः ॥४३॥
तया शयाने विश्वस्मिन् रक्षकेषु स्वपत्सु च ।
द्वार उद्‌घाटिताः सर्वाः प्रस्फुटच्छृङ्‌खलार्गलाः ॥४४॥
निर्गते वसुदेवे च मूर्ध्नि श्रीकृष्णशोभिते ।
सूर्योदये यथा सद्यस्तमोनाशोऽभवत्स्वतः ॥४५॥
घनेषु व्योम्नि वर्षत्सु सहस्रवदनः स्वराट् ।
निवारयन्दीर्घफणैरासारं शौरिमन्वगात् ॥४६॥
ऊर्म्यावर्ताकुलावेगैः सिंहसर्पादिवाहिनी ।
सद्यो मार्गं ददौ तस्मै कालिन्दी सरितां वरा ॥४७॥
नन्दव्रजं समेत्यासौ प्रसुप्तं सर्वतः परम् ।
शिशुं यशोदाशयने निधायाशु ददर्श ताम् ॥४८॥
तत्सुतां समुपादाय पुनर्गेहाज्जगाम सः ।
तीर्त्वा श्रीयमुनां शौरिः स्वागारे पूर्ववत्स्थितः ॥४९॥
सुतं सुतां वा जातं चाज्ञात्वा गोपी यशोमती ।
परिश्रान्ता स्वशयने सुष्वापानन्दनिद्रया ॥५०॥
अथ बालध्वनिं श्रुत्वा रक्षकाः समुपस्थिताः ।
ऊचुः कंसाय वीराय गत्वा तद्‌राजमन्दिरम् ॥५१॥
सूतीगृहं त्वरं प्रागात्कंसो वै भयकातरः ।
स्वसाथ भ्रातरं प्राह रुदती दीनवत्सती ॥५२॥

 

श्रीभगवान् ने कहा- पूर्वसृष्टिमें ये माता पतिव्रता पृश्नि थीं और आप प्रजापति सुतपा । आप दोनों ने संतान के लिये ब्रह्माजी की आज्ञा से अन्न और जलका त्याग करके बड़ी भारी तपस्या की थी। एक मन्वन्तर का समय बीत जाने पर भी प्रजा की कामना से आपकी तपस्या चलती रही, तब मैं आप दोनोंपर प्रसन्न होकर बोला- 'आपलोग कोई उत्तम वर माँग लें' ॥ ३७-३८ ॥

मेरी बात सुनकर आप तत्काल बोले- 'प्रभो! हम दोनोंको आपके समान पुत्र प्राप्त हो।' उस समय 'तथास्तु' कहकर जब मैं चला आया, तब आप दोनों दम्पति अपने पुण्यकर्मके फलस्वरूप प्रजापति हुए। संसारमें मेरे समान तो कोई पुत्र है नहीं - यह विचारकर मैं स्वयं परमेश्वर ही आपका पुत्र हुआ । उस समय भूतलपर मैं 'पृश्निगर्भ' नामसे विख्यात हुआ । फिर दूसरे जन्ममें जब आप कश्यप और अदिति हुए, तब मैं आपका पुत्र वामन आकारवाला उपेन्द्र हुआ । उसी प्रकार इस वर्तमान जन्ममें भी मैं परात्पर परमेश्वर आप दोनोंका पुत्र हुआ हूँ। पिताजी ! अब आप मुझे नन्दभवनमें पहुँचा दें। इससे आप दोनोंको कंससे कोई भय नहीं होगा । नन्दरायकी पुत्रीको यहाँ ले आकर आप सुखी होइयेगा ।। ३९ – ४१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भगवान् वहाँ मौन हो, उन दोनोंके देखते-देखते वर्तमान स्वरूपको अदृश्य करके, बालरूप हो पृथ्वीपर पड़ गये-जैसे किसी नटने क्षणभरमें वेष-परिवर्तन कर लिया हो । शिशुको पालनेमें सुलाकर ज्यों ही वसुदेवजी ले जानेको उद्यत हुए, त्यों-ही महावनमें नन्दपत्नीके गर्भसे योगमायाने स्वतः जन्मग्रहण किया ।। ४२ – ४३ ॥

उसीके प्रभावसे सब लोग सो गये। पहरेदार भी नींद लेने लगे। सारे दरवाजे मानो किसीने खोल दिये। साँकल और अर्गलाएँ टूट-फूट गयीं। श्रीकृष्णको माथेपर लिये जब वसुदेवजी गृहसे बाहर निकले, उस समय उनके भीतरका अज्ञान और बाहरका अँधेरा स्वतः दूर हो गया- ठीक उसी तरह, जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकारका तत्काल नाश हो जाता है। आकाशमें बादल घिर आये और वे जलकी वृष्टि करने लगे। तब सहस्र मुखवाले स्वयंप्रकाश शेषनाग अपने फनोंसे छत्रछाया करके गिरती हुई जलकी धाराओंका निवारण करते हुए उनके पीछे- पीछे चलने लगे ।। ४४ – ४६ ॥

उस समय यमुनामें जलके वेगसे बहनेके कारण ऊँची लहरें उठतीं और भँवरें पड़ रही थीं । वे सिंह और सर्पादि जन्तुओंको भी बहाये लिये जाती थीं; किंतु सरिताओंमें श्रेष्ठ उन कलिन्दनन्दिनी यमुनाने वसुदेवजीको तत्काल मार्ग दे दिया । नन्द- रायजीका सारा व्रज गाढ़ी नींदमें सो रहा था। वहाँ पहुँचकर वसुदेवजीने अपने परम शिशुको यशोदाजी- की शय्यापर शीघ्र सुलाकर उस दिव्य कन्याको देखा । यशोदाजीकी उस कन्याको गोदमें लेकर वसुदेवजी पुनः अपने घर लौट आये। वे यमुनाजीको पार करके पूर्ववत् अपने घरमें स्थित हो गये । ४७ – ४९ ॥

उधर गोपी यशोदाको इतना ही ज्ञात हुआ कि उसे कोई पुत्र या पुत्री हुई है। वे प्रसव वेदनाके श्रमसे अत्यन्त थकी होनेके कारण अपनी शय्यापर आनन्दकी नींद लेती हुई सो गयी थीं। इधर बालकके रोनेकी आवाज सुनकर पहरेदार राजभवनमें उपस्थित हुए और जाकर वीर कंसको बालकके जन्मनेकी सूचना दी। यह समाचार कानमें पड़ते ही कंस भयसे कातर हो तुरंत सूतीगृहमें जा पहुँचा । उस समय सती-साध्वी बहिन देवकी दीनकी तरह रोती हुई भाईसे बोलीं ॥ ५०-५२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 

 



1 टिप्पणी:

  1. 🥀💟🪔जय श्री कृष्ण🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    बंदीगृह के तुम अवतारे
    कहीं पर जन्मे कहीं पले मुरारे

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