शनिवार, 20 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८ ॥
ताः पुत्रमङ्‌कं आरोप्य स्नेहस्नुत पयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुः नेत्रजैर्जलैः ॥ २९ ॥
अथाविशत् स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्‍नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३० ॥
पत्‍न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
     क्य सञ्जात मनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात् सहसासनाशयात्
     व्रतैः व्रीडित लोचनाननाः ॥ ३१ ॥
तं आत्मजैः दृष्टिभिरन्तरात्मना
     दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयोः
     विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ॥ २८-२९ ॥ माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥ अपने प्राणनाथ भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियों के हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी हुर्ईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं, बल्कि उन नियमोंको[*] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके  नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये ॥ ३२ ॥
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[*] जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना चहिये—
क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ॥
जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्री को खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना—इन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये। ............(याज्ञवल्क्यस्मृति)

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


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