शुक्रवार, 17 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा-
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।
लब्धा सभ मयकृताद्भुतशिल्पमाया 
दिग्भोऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥८॥
यत्तेजसा नृपशिरोऽडघ्रिमहन्मखार्थे 
आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः ।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा 
यन्मोचितास्तदनयन बलिमध्वरे ते ॥९॥
पत्‍न्यास्तवधिमखक्लृप्तमहाभिषेक-
श्‍लाघिष्ठन्चारुकाबरं कितवैः सभायाम ।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या 
यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः ॥१०॥
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद् 
दुर्वाससोऽरिविहतादयुताग्रभुग् यः ।
शाकान्नशिशःटमुपयुज्य यतास्त्रिलोकीं 
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमंग्नसंघः ॥११॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) श्रीकृष्ण की सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओंके साथ इन्द्रको अपने बलसे जीतकर अग्निदेवको उनकी तृप्तिके लिये खाण्डव वनका दान कर दिया और मय दानवकी निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ॥ ८ ॥ दस हजार हाथियों की शक्ति और बलसे सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की  शक्तिसे राजाओं के सिर पर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्धका वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान्‌ने उन बहुत-से राजाओंको मुक्त किया, जिनको जरासन्धने महाभैरव-यज्ञमें बलि चढ़ानेके लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओंने आपके यज्ञमें अनेकों प्रकारके उपहार दिये थे ॥ ९ ॥ महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञके महान् अभिषेकसे पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशोंको, जिन्हें दुष्टोंने भरी सभामें छूनेका साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखोंमें आँसू भरकर जब श्रीकृष्णके चरणोंमें गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करके उन धूर्तोंकी स्त्रियोंकी ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥ १० ॥ वनवासके समय हमारे वैरी दुर्योधनके षड्यन्त्रसे दस हजार शिष्योंको साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासाने हमें दुस्तर संकटमें डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदीके पात्रमें बची हुई शाककी एक पत्तीका ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदीमें स्नान करती हुई मुनिमण्डलीको ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है [*] ॥ ११ ॥ 

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[*] एक बार राजा दुर्योधनने महर्षि दुर्वासाकी बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनिने दुर्योधनसे वर माँगनेको कहा। दुर्योधनने यह सोचकर कि ऋषिके शापसे पाण्डवोंको नष्ट करनेका अच्छा अवसर है, मुनिसे कहा—‘‘ब्रह्मन् ! हमारे कुलमें युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्र शिष्योंसहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूखका कष्ट न उठाना पड़े।’’ द्रौपदीके पास सूर्यकी दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदीके भोजन कर लेनेसे पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करनेके बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधनके कथनानुसार उसके भोजन कर चुकनेपर मध्याह्नमें अपनी शिष्यमण्डलीसहित पहुँचे और धर्मराजसे बोले—‘‘हम नदीपर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।’’ इससे द्रौपदीको बड़ी चिन्ता हुई और उसने अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरण ली। भगवान्‌ तुरंत ही अपना विलासभवन छोडक़र द्रौपदीकी झोंपड़ीपर आये और उससे बोले—‘‘कृष्णे ! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खानेको दो।’’ द्रौपदी भगवान्‌की इस अनुपम दयासे गद्गद हो गयी और बोली ‘‘प्रभो ! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भरने मुझसे भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ ? अब तो कुटीमें कुछ भी नहीं है।’’ भगवान्‌ने कहा—‘‘अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।’’ द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाकका एक कण लगा था। विश्वात्मा हरिने उसीको भोग लगाकर त्रिलोकीको तृप्त कर दिया और भीमसेनसे कहा कि मुनिमण्डलीको भोजनके लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🌺🥀जय हो मेरे जगन्नाथ
    जय श्री हरि !!🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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