रविवार, 30 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

ब्रह्मोवाच -
कृष्णाय मेघवपुषे चपलाम्बराय
     पियूषमिष्टवचनाय परात्पराय ।
वंशीधराय शिखिचंद्रिकयान्विताय
     देवाय भ्रातृसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १ ॥
कृष्णस्तु साक्षात्पुरुषोतमः स्वयं
     पूर्णः परेशः प्रकृतेः परो हरिः ।
यस्यावतारांशकला वयं सुरा
     सृजाम विश्वं क्रमतोऽस्य शक्तिभिः ॥ २ ॥
स त्वं साक्षात्कृष्णचन्द्रावतारो
     नन्दस्यापि पुत्रतामागतः कौ ।
वृन्दारण्ये गोपवेशेन वत्सान्
     गोपैर्मुख्यैश्चारयन् भ्राजसे वै ॥ ३ ॥
हरिं कोटिकन्दर्पलीलाभिरामं
     स्फुरत्कौस्तुभं श्यामलं पीतवस्त्रम् ।
व्रजेशं तु वंशीधरं राधिकेशं
     परं सुन्दरं तं निकुंजे नमामि ॥ ४ ॥
तं कृष्णं भज हरिमादिदेवमस्मिन्
     क्षेत्रज्ञं कमिव विलिप्तमेघमेव ।
स्वच्छाङ्‌गं परमधियाज्ञचैत्यरूपं
     भक्त्याद्यैर्विशदविरागभावसंघैः ॥ ५ ॥
यावन्मनश्च रजसा प्रबलेन विद्वन्
     संकल्प एव तु विकल्पक एव तावत् ।
ताभ्यां भवेन्मनसिजस्त्वभिमानयोग-
     स्तेनापि बुद्धिविकृतिं क्रमतः प्रयान्ति ॥ ६ ॥
विद्युद्‌द्युतिस्त्वृतुगुणो जलमध्यरेखा
     भूतोल्मुकः कपटपान्थरतिर्यथा च ।
इत्थं तथाऽस्य जगतस्तु सुखं मृषेति
     दुःखावृतं विषयघूर्णमलातचक्रम् ॥ ७ ॥
वृक्षा जलेन चलतापि चला इवात्र
     नेत्रेण भूरिचलितेन चलेव भूश्च ।
एवं गुणः प्रकृतिजैर्भ्रमतो जनस्थं
     सत्यं वदेद्‌गुणसुखादिदमेव कृष्ण ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले – “मेघकी-सी कान्तिसे युक्त विद्युत्-वर्णका वस्त्र धारण करनेवाले, अमृत तुल्य मीठी वाणी बोलनेवाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर पिच्छको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको उनके भ्राता बलरामसहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात् स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण परमेश्वर, प्रकृतिसे अतीत श्रीहरि हैं । हम देवता जिनके अंश और कलावतार हैं, जिनकी शक्तिसे हमलोग क्रमशः विश्वकी सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात् कृष्णचन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होकर धराधामपर नन्दका पुत्र होना स्वीकार किया है। आप प्रधान- प्रधान गोप-बालकोंके साथ गोपवेषसे वृन्दावनमें गोचारण करते हुए विराज रहे हैं। करोड़ों कामदेवके समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर, व्रजेश, राधिकापति, निकुञ्ज-विहारी परमसुन्दर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ।। १-४ ॥

 

जो मेघ से निर्लिप्त आकाश के समान प्राणियों की देह में क्षेत्रज्ञ रूपसे स्थित हैं, जो अधियज्ञ एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावों से प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरि की मैं वन्दना करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मनमें प्रबल रजोगुण का उदय होता है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है संकल्प - विकल्पके वशीभूत मन में ही अभिमान की उत्पत्ति होती है और वही अभिमान धीरे-धीरे बुद्धिको विकृत कर देता है ।। ५-६ ॥

 

क्षणस्थायी बिजली के समान, बदलते हुए ऋतुगुणों के समान, जलपर खींची गयी रेखा के समान, पिशाच के द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारों के समान और कपटी यात्री की प्रीति के समान जगत् के सुख मिथ्या हैं। विषय-सुख दुःखोंसे घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत् (जलते हुए अंगारको वेगसे चक्राकार घुमानेपर जो क्षणस्थायी वृत्त बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते हुए भी, जलके चलनेके कारण चलते हुए-से दीखते हैं, नेत्रोंको वेगसे घुमानेपर अचल पृथ्वी भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण ! उसी प्रकार प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके वशमें होकर भ्रान्त जीव उस प्रकृतिजन्य सुखको सत्य मान लेता है ।। ७-८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌹🌸💖🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    जय श्री राधे गोविंद

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