#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
आठवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन
एवं प्रेमपरान् सर्वान् दृष्ट्वा
सङ्कर्षणो बल. ।
बहुप्रकारं सन्देहं कृत्वा मनसि
सोऽब्रवीत् ॥ १९
हो कि वत्सरात् प्राप्तो न ज्ञातोऽपि
व्रजे मया ।
तिस्नेहस्तु सर्वेषा वर्द्धते च दिने
दिने ॥ २०
केयं माया समायाता देवगन्धर्वरक्षसाम्
।
नान्या मे मोहिनी माया विना कृष्णस्य
साम्प्रतम् ॥ २१
एव'
विचार्य रामस्तु लोचने स्वे न्यमीलयन् ।
भूतं भव्यं भविष्यञ्च दिव्यात्ताभ्यां
ददर्श ह || २२
सर्वान् वत्साँस्तथा गोपान् व'
शीवेत्रविभूषितान् ।
बहिंपक्षधरान् श्यामान्
भृग्वङ्घ्रिकृत कौतुकान् ॥ २३
जालकाना मणीनाञ्च गुञ्जानां
स्रग्भिरेव च ।
पद्मानां कुमुदानाच ह्येषां
स्रग्भिर्विभूषितान् ॥ २४
उष्णीषैर्मुकुटैर्दिव्यैः
कुण्डलैरलकैव तान् ।
आनन्दवर्षान् कुर्वाणान्
शरत्पद्मदृशैरपि ॥ २५
कोटिकन्दर्प लावण्यान्
नासामौक्तिकशोभितान् ।
शिखाभूषणसंयुक्तान् पाणिभूषणभूषितान्
।। २६
द्विभुजान् पीतवस्त्रश्च का
चीकटकनूपुरै ।
प्रभातरविकोटीना शोभाभि शोभितान्
शुभान् ॥ २७
उत्तरे गिरिराजस्य यमुनायाश्च दक्षिणे
।
आष्ट वृन्दारण्ये सर्वान् कृष्णं
हलायुध. ॥ २८
ज्ञात्वा कृष्णकृतं कर्म तथा विधिकृतं
बलः ।
पुनवेत्सान् वत्सपाश्च पश्यन्
कृष्णमुवाच ह ॥ २९
ब्रह्मानन्तो धर्म इन्द्र. शिवश्च
सेवन्ते तं भक्तियुक्ताः सदैते ।
स्वात्माराम पूर्णकाम: परेश
स्रष्टुं शक्तः कोटिशोऽण्डानि यः खे ॥
३०
नारद उवाच
एवं ब्रुवति श्रीरामे तावत्तत्रागतो
विधिः ।
ददर्श कृष्णं रामञ्च वत्सकैर्वत्सपैः
समम् ॥ ३१
हो कृष्णेन चानीता यत्र सर्वे धृता
मया ।
इति ब्रुवन् ययौ स्थाने तत्र सर्वान्
ददर्श सः ॥ ३२
दृष्ट्वा प्रसुप्तान् सर्वास्तु स
श्रागत्य व्रजे पुनः ।
वत्सपालैर्हरि वीक्ष्य मनसि प्राह
विस्मितः ॥ ३३
विचित्र ये सर्वे कुत्र स्थानात्
समागताः ।
क्रीडन्तो पूर्ववञ्चात्र सार्क
कृष्णोन क्रीडनै ॥ ३४
मत्त्रुटिवत्सरश्चैको
व्यतीतोऽभून्महीतले ।
सर्वे प्रसन्नतां प्राप्ता न ज्ञातः
केनचित् कचित् ॥ ३५
एवं संमोहयन् ब्रह्मा मोहनं
विश्वमोहनम् ।
स्वमाययान्धकारेण स्वगात्र नैव
दृष्टवान् ॥ ३६
संकर्षण
बलराम ने इस प्रकार जब गोपों को प्रेम-
परायण देखा, तब उनके मन में अनेक प्रकार के
संदेह उठने लगे। उन्होंने मन-ही-मन कहा – 'अहा ! प्रायः एक वर्ष से
व्रज में क्या हो गया है, वह मेरी समझ में
नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सब के हृदयों का
स्नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है । क्या यह देवताओं, गन्धर्वों
या राक्षसोंकी माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करने वाली
कृष्णकी माया से भिन्न और कुछ नहीं है ।।१९-२१
॥
इस
प्रकार विचार करके बलरामजी- ने अपने नेत्र बंद कर लिये और दिव्यचक्षुसे भूत, भविष्य
तथा वर्तमानको देखा। बलरामजीने समस्त गोवत्स एवं पहाड़की तलहटीमें खेलनेवाले गोप- बालकोंको
वंशी - वेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं गुञ्जाफलोंकी मालासे
शोभित, कमल एवं कुमुदिनीकी मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों
एवं अलकावली- से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रोंसे निहारकर आनन्द देनेवाले, करोड़ों
कामदेवोंकी शोभासे सम्पन्न, नासिकास्थित मुक्ताभरणसे अलंकृत, शिखा- भूषणसे युक्त, दोनों
हाथोंमें आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला, कड़े और नूपुरसे
शोभित, करोड़ों बाल-रवियोंकी प्रभासे युक्त और मनोहर देखा ।।२२-२७॥
बलरामजीने
गोवर्धनसे उत्तर की ओर एवं यमुनाजीसे दक्षिणकी ओर स्थित वृन्दावनमें सब कुछ कृष्णमय
देखा । वे इस कार्यको ब्रह्माजी और श्रीकृष्णका किया हुआ जानकर पुनः गोवत्सों एवं वत्सपालोंका
दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसे बोले— 'ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्ति युक्त
होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्यमें
करोड़ों ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ हो' ॥ २८ - ३० ॥
श्रीनारदजीने
कहा- जिस समय बलरामजी यों कह रहे थे, उसी समय ब्रह्माजी वहाँ आये और उन्होंने गोवत्सों
एवं गोप-बालकोंके साथ बलरामजी एवं श्रीकृष्णके दर्शन किये। 'ओहो ! मैं जिस स्थानपर
गोवत्स तथा गोप-बालकोंको रख आया था, वहाँसे श्रीकृष्ण उनको ले आये हैं।' –यो कहते हुए
ब्रह्माजी उस स्थानपर गये और वहाँपर उन सबको पहलेकी तरह ही पाया ।। ३१-३२
॥
ब्रह्माजी
उनको निद्रित देखकर पुनः व्रजमें आये और गोप-बालकोंके साथ श्रीहरिके दर्शन करके विस्मित
हो गये। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'ओहो, कैसी विचित्रता है ! ये लोग कहाँसे यहाँ आये और
पहलेकी ही भाँति श्रीकृष्णके साथ खेल रहे हैं ? ।। ३३-३४ ॥
यह
सब खेल करनेमें मुझे एक त्रुटि (क्षण) जितना काल लगा, परंतु इतनेमें इस भूलोकमें एक
वर्ष पूरा हो गया । तथापि सभी प्रसन्न हैं, कहीं किसीको इस घटनाका पता भी नहीं चला।'
इस प्रकार से ब्रह्माजी मोहातीत विश्वमोहनको मोहित करने गये।
परंतु अपनी मायाके अन्धकारमें वे स्वयं अपने शरीरको भी नहीं देख सके
।। ३५-३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
💟🌷🥀🌺जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण नारायण नारायण गोविन्द नमो नमः 🙏💟🙏