रविवार, 2 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

दामोदर कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार

 

बाला ऊचुः
अनेन पातितौ वृक्षौ ताभ्यां द्वौ पुरुषौ स्थितौ ।
एनं नत्वा गतावद्य तावुदीच्यां स्फुरत्प्रभौ ॥२३॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तेषां न ते श्रद्दधिरे ततः ।
मुमोच नंदः स्वं बालं दाम्ना बद्धमुलूखले ॥२४॥
संलालयन्स्वांकदेशे समाघ्राय शिशुं नृप ।
निर्भर्त्स्य भामिनीं नंदो विप्रेभ्यो गोशतं ददौ ॥२५॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
काविमौ पुरुषौ दिव्यौ वद देवर्षिसत्तम ।
केन दोषेण वृक्षत्वं प्रापितौ यमलार्जुनौ ॥२६॥


श्रीनारद उवाच -
नलकूबरमणिग्रीवौ राजराजसुतौ परौ ।
जग्मतुर्नंदनवनं मंदाकिन्यास्तटे स्थितौ ॥२७॥
अप्सरोभिर्गीयमानौ चेरतुर्गतवाससौ ।
वारुणीमदिरामत्तौ युवानौ द्रव्यदर्पितौ ॥२८॥
कदाचिद्देवलो नाम मुनींद्रो वेदपारगः ।
नग्नौ दृष्ट्वा च तावाह दुष्टशीलौ गतस्मृती ॥२९॥


देवल उवाच -
युवां वृक्षसमौ दृष्टौ निर्लज्जौ द्रव्यदर्पितौ ।
तस्माद्‌वृक्षौ तु भूयास्तां वर्षाणां शतकं भुवि ॥३०॥
द्वापरांते भारते च माथुरे व्रजमंडले ।
कलिंदनंदिनीतीरे महावनसमीपतः ॥३१॥
परिपूर्णतमं साक्षात्कृष्णं दामोदरं हरिम् ।
गोलोकनाथं तं दृष्ट्वा पूर्वरूपौ भविष्यथः ॥३२॥
इत्थं देवलशापेन वृक्षत्वं प्रापितौ नृप ।
नलकूबरमणिग्रीवौ श्रीकृष्णेन विमोचितौ ॥३३॥


 बालकोंने कहा – इस कन्हैयाने ही दोनों वृक्षोंको गिराया है। उन वृक्षोंसे दो पुरुष निकलकर यहाँ खड़े थे, जो इसे नमस्कार करके अभी-अभी उत्तर दिशाकी ओर गये हैं। उनके अङ्गोंसे दीप्तिमती प्रभा निकल रही थी ॥ २३ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! ग्वाल-बालोंकी यह बात सुनकर उन बड़े-बूढ़े गोपोंने उसपर विश्वास नहीं किया। नन्दजीने ओखलीमें रस्सीसे बँधे हुए अपने बालकको खोल दिया और लाड़-प्यार करते हुए गोद में उठाकर उस शिशुको सूँघने लगे। नरेश्वर ! नन्दजीने अपनी पत्नीको बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणोंको सौ गायें दानके रूपमें दीं ।। २४-२५॥

 

बहुलाश्वने कहा- देवर्षिप्रवर ! वे दोनों दिव्य पुरुष कौन थे, यह बताइये । किस दोषके कारण उन्हें यमलार्जुनवृक्ष होना पड़ा था ।। २६ ।।

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वे दोनों कुबेरके श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनका नाम था - 'नलकूबर' और 'मणिग्रीव'। एक दिन वे नन्दनवनमें गये और वहाँ मन्दाकिनीके तटपर ठहरे। वहाँ अप्सराएँ उनके गुण गाती रहीं और वे दोनों वारुणी मदिरासे मतवाले होकर वहाँ नंग-धड़ंग विचरते रहे। एक तो उनकी युवावस्था थी और दूसरे वे द्रव्य के दर्प (धन के मद) से दर्पित (उन्मत्त ) थे। उसी अवसर पर किसी काल में 'देवल' नामधारी मुनीन्द्र, जो वेदोंके पारंगत विद्वान् थे, उधर आ निकले । उन दोनों कुबेर-पुत्रोंको नम देखकर ऋषिने उनसे कहा— 'तुम दोनोंके स्वभावमें दुष्टता भरी है । तुम दोनों अपनी सुध-बुध खो बैठे हो । २७ - २९॥

 

इतना कहकर देवलजी फिर बोले- तुम दोनों वृक्षके समान जड, धृष्ट तथा निर्लज्ज हो । तुम्हें अपने द्रव्यका बड़ा घमंड है; अतः तुम दोनों इस भूतलपर सौ (दिव्य) वर्षोंतकके लिये वृक्ष हो जाओ। जब द्वापरके अन्तमें भारतवर्षके भीतर मथुरा जनपदके व्रज-मण्डलमें कलिन्दनन्दिनी यमुनाके तटपर महावनके समीप तुम दोनों साक्षात् परिपूर्णतम दामोदर हरि गोलोकनाथ श्रीकृष्णका दर्शन करोगे, तब तुम्हें अपने पूर्वस्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३०-३२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार देवलके शापसे वृक्षभावको प्राप्त हुए नलकूबर और मणिग्रीवका श्रीकृष्णने उद्धार किया ॥ ३३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें

यमलार्जुन-मोचन' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🌹🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    कृष्ण दामोदरम् वासुदेवम् हरि: !!
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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