सोमवार, 3 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

दुर्वासाद्वारा भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा कृष्णचंद्रस्य दर्शनार्थं परस्य च ।
दुर्वासा मुनिशार्दूलो व्रजमंडलमाययौ ॥१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
महावनसमीपे च कृष्णमाराद्ददर्श ह ॥२॥
श्रीमन्मदनगोपालं लुठंतं बालकैः सह ।
परस्परं प्रयुद्ध्यंतं बालकेलिं मनोहरम् ॥३॥
धूलिधूसरसर्वांगं वक्रकेशं दिगंबरम् ।
धावंतं बालकैः सार्द्धं हरिं वीक्ष्य स विस्मितः ॥४॥


श्रीमुनिरुवाच -
स ईश्वरोऽयं भगवान्कथं बालैर्लुठन् भुवि ।
अयं तु नंदपुत्रोऽस्ति न श्रीकृष्णः परात्परः ॥५॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं मोहं गते तत्र दुर्वाससि महामुनौ ।
क्रीडन्कृष्णस्तत्समीपे तदंके ह्यागतः स्वयम् ॥६॥
पुनर्विनिर्गतो ह्यंकाद्‌बालसिंहावलोकनः ।
हसन्कलं ब्रुवन्कृष्णः संमुखः पुनरागतः ॥७॥
हसतस्तस्य च मुखे प्रविष्टः श्वसनैर्मुनिः ।
ददर्शान्यं महालोकं सारण्यं जनवर्जितम् ॥८॥
अरण्येषु भ्रमंस्तत्र कुतः प्राप्त इति ब्रुवन् ।
तदैवाजगरेणापि निगीर्णोऽभून्महामुनिः ॥९॥
ब्रह्मांडं तत्र ददृशे सलोकं सबिलं परम् ।
भ्रमन्द्वीपेषु स मुनिः स्थितोऽभूत्पर्वते सिते ॥१०॥
तपस्तताप वर्षाणां शतकोटीः प्रभुं भजन् ।
नैमित्तिकाख्ये प्रलये प्राप्ते विश्वभयंकरे ॥११॥
आगच्छंतः समुद्रास्ते प्लावयंतो धरातलम् ।
वहंस्तेषु च दुर्वासा न प्रापांतं जलस्य च ॥१२॥
व्यतीते युगसाहस्त्रे मग्नोऽभूद्‌विगतस्मृतिः ।
पुनर्जलेषु विचरन्नंडमन्यं ददर्श ह ॥१३॥
तच्छिद्रे च प्रविष्टोऽसौ दिव्यां सृष्टिं गतस्ततः ।
तडंडमूर्ध्नि लोकेषु विधेरायुःसमं चरन् ॥१४॥
एव्ं छिद्रं तत्र वीक्ष्य प्राविशत्स हरिं स्मरन् ।
बहिर्विनिर्गतो ह्यंडाद्ददर्शाशु महाजलम् ॥१५॥
तस्मिन् जले तु लक्ष्यंते कोटिशो ह्यंडराशयः ।
ततो मुनिर्जलं पश्यन् ददर्श विरजां नदीम् ॥१६॥
तत्पारं प्रगतः साक्षाद्‌गोलोकं प्राविशन्मुनिः ।
वृंदावनं गोवर्द्धनं यमुनापुलिनं शुभम् ॥१७॥
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्निकुंजं प्राविशत्तदा ।
गोपगोपीगणवृतं गवां कोटिभिरन्वितम् ॥१८॥
असंख्यकोटिमार्तंड ज्योतिषां मंडले ततः ।
दिव्ये लक्षदले पद्मे स्थितं राधापतिं हरिम् ॥१९॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिं गोलोकं स्वं ददर्श ह ॥२०॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेके लिये व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने कालिन्दीके निकट पवित्र वालुकामय पुलिनके रमणीय स्थलमें महावनके समीप श्रीकृष्णको निकटसे देखा । वे शोभाशाली मदनगोपाल बालकोंके साथ वहाँ लोटते, परस्पर मल्ल-युद्ध करते तथा भाँति-भाँति की बालोचित लीलाएँ करते थे। इन सब कारणोंसे वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे । उनके सारे अङ्ग धूलसे धूसरित थे। मस्तकपर काले घुँघराले केश शोभा पाते थे।

दिगम्बर-वेषमें बालकोंके साथ दौड़ते हुए श्रीहरिको देखकर दुर्वासाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ । १ – ४ ॥

 

श्रीमुनि ( मन-ही-मन ) कहने लगे - क्या यह वही षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न ईश्वर है ? फिर यह बालकोंके साथ धरतीपर क्यों लोट रहा है ? मेरी समझमें यह केवल नन्दका पुत्र है, परात्पर श्रीकृष्ण नहीं है ॥ ५ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जब महामुनि दुर्वासा इस प्रकार मोहमें पड़ गये, तब खेलते हुए श्रीकृष्ण स्वयं उनके पास उनकी गोदमें आ गये । फिर उनकी गोद से हट गये। श्रीकृष्णकी दृष्टि बाल-सिंहके समान थी। वे हँसते और मधुर वचन बोलते हुए पुनः मुनिके सम्मुख आ गये ॥ ६-७ ॥  

 

हँसते हुए श्रीकृष्णके श्वाससे खिंचकर मुनि उनके मुँहमें समा गये। वहाँ जाकर उन्होंने एक विशाल लोक देखा, जिसमें अरण्य और निर्जन प्रदेश भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन अरण्यों (जंगलों) में भ्रमण करते हुए मुनि बोल उठे - 'मैं कहाँसे यहाँ आ गया ? इतनेमें ही उन महामुनिको एक अजगर निगल गया। उसके पेटमें पहुँचनेपर मुनिने वहाँ सातों लोकों और पातालोंसहित समूचे ब्रह्माण्डका दर्शन किया। उसके द्वीपोंमें भ्रमण करते हुए दुर्वासा मुनि एक श्वेत पर्वतपर ठहर गये ॥ ८ - १०॥  

 

उस पर्वतपर शतकोटि वर्षोंतक भगवान्‌का भजन करते हुए वे तप करते रहे। इतनेमें ही सम्पूर्ण विश्वके लिये भयंकर नैमित्तिक प्रलयका समय आ पहुँचा। समुद्र सब ओरसे धरातलको डुबाते हुए मुनिके पास आ गये । दुर्वासा मुनि उन समुद्रोंमें बहने लगे। उन्हें जलका कहीं अन्त नहीं मिलता था ॥ ११ - १२॥

 

इसी अवस्थामें एक सहस्र युग व्यतीत हो गये । तदनन्तर मुनि एकार्णवके जलमें डूब गये। उनकी स्मृति-शक्ति नष्ट हो गयी। फिर वे पानीके भीतर विचरने लगे। वहाँ उन्हें एक दूसरे ही ब्रह्माण्डका दर्शन हुआ। उस ब्रह्माण्डके छिद्रमें प्रवेश करनेपर वे दिव्य सृष्टिमें जा पहुँचे । वहाँसे उस ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान लोकोंमें ब्रह्माकी आयु पर्यन्त विचरते रहे। इसी प्रकार वहाँ एक छिद्र देखकर श्रीहरिका स्मरण करते हुए वे उसके भीतर घुस गये। घुसते ही उस ब्रह्माण्डके बाहर आ निकले। फिर तत्काल उन्हें महती जलराशि दिखायी दी ॥ १३ - १५॥  

 

उस जलराशिमें उन्हें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी राशियाँ बहती दिखायी दीं। तब मुनिने जलको ध्यानसे देखा तो उन्हें वहाँ विरजा नदीका दर्शन हुआ। उस नदीके पार पहुँचकर मुनिने साक्षात् गोलोकमें प्रवेश किया । वहाँ उन्हें क्रमशः वृन्दावन, गोवर्धन और सुन्दर यमुनापुलिनका दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे मुनि जब निकुञ्जके भीतर घुसे, तब उन्होंने अनन्त कोटि मार्तण्डोंके समान ज्योति मण्डल के अंदर दिव्य लक्षदल कमलपर विराजमान साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम राधावल्लभ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, जो असंख्य गोप-गोपियोंसे घिरे तथा कोटि-कोटि गौओंसे सम्पन्न थे । असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति उन भगवान् श्रीहरिके साथ ही उनके गोलोकका भी मुनिको दर्शन हुआ ।। १६–२० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 🕉️🥀💖🌷जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    कृष्ण दामोदरम् वासुदेवम हरि:
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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