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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
वकासुरका
उद्धार
उत्कल उवाच -
न जाने ते तपश्चंडं मुने मां पाहि जाजले ।
साधुनां भवतां संगं मोक्षद्वारं परं विदुः ॥ ३६ ॥
मित्रे शत्रौ समा मानेऽपमाने हेमलोष्टयोः ।
सुखे दुःखसमा ये वै त्वादृशाः साधवश्च ते ॥ ३७ ॥
किं किं न जातं महतां दर्शनात्कौ मुने नृणाम् ।
पारमेष्ठ्यं च साम्राज्यमैन्द्रयोगपदं लभेत् ॥ ३८ ॥
जाजले मुनिशार्दूल त्रैवर्ग्यं किमभूज्जनैः ।
साधूनां कृपया साक्षात्पूर्णं ब्रह्मापि लभ्यते ॥ ३९ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्जाजलिस्तमुवाच ह ।
वर्षषष्टिसहस्राणि तपस्तप्तं च येन वै ॥ ४० ॥
वैवस्वतान्तरे प्राप्ते ह्यष्टाविंशतिमे युगे ।
द्वापरान्ते भारतेऽपि माथुरे व्रजमंडले ॥ ४१ ॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
वृंदावने गवां वत्सान् चारयन् विचरिष्यति ॥ ४२ ॥
तदा तन्मयतां कृष्णे यास्यसि त्वं न संशयः
हिरण्याक्षादयो दैत्या वैरेणापि परं गताः ॥ ४३ ॥
इत्थं बकासुरो दैत्य उत्कलो जाजलेर्वरात् ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः सत्सम्गात्किं न जायते ॥ ४४ ॥
उत्कल
बोला - मुने! मैं आपके प्रचण्ड तपोबलको नहीं जानता था । जाजलिजी ! मेरी रक्षा
कीजिये । आप जैसे साधु-महात्माओंका सङ्ग तो उत्तम मोक्षका द्वार माना गया है। जो
शत्रु और मित्र में, मान और अपमान में,
सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में तथा सुख और दुःख में भी समभाव रखते
हैं, वे आप जैसे महात्मा ही सच्चे साधु हैं ।। ३६-३७ ॥
मुने!
इस भूतलपर महात्माओं के दर्शनसे मनुष्योंका कौन-कौन मनोरथ नहीं पूरा हुआ ?
ब्रह्मपद, इन्द्रपद, सम्राट्का पद तथा
योगसिद्धि – सब कुछ संतों की कृपासे सुलभ हो सकते हैं। मुनिश्रेष्ठ जाजले ! आप
जैसे महात्माओं से लोगों को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति
हुई तो क्या हुई ? साधुपुरुषों की कृपा से तो साक्षात्
पूर्णब्रह्म परमात्मा भी मिल जाता है ।। ३८-३९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- नरेश्वर ! उस समय उत्कलकी विनययुक्त बात सुनकर वे जाजलि मुनि प्रसन्न हो
गये। इन्होंने साठ हजार वर्षोंतक तपस्या की थी। उन्होंने उत्कलसे कहा ॥ ४० ॥
जाजलि
बोले- वैवस्वत मन्वन्तर प्राप्त होने पर जब अट्ठाईसवें द्वापर का अन्तिम समय बीतता
होगा,
उस समय भारतवर्ष के माथुर जनपद में स्थित व्रजमण्डल के भीतर
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन में गोवत्स चराते हुए विचरेंगे।
उन्हीं दिनों तुम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो जाओगे, इसमें
संशय नहीं है। हिरण्याक्ष आदि दैत्य भगवान् के प्रति वैरभाव रखनेपर भी उनके परमपद को
प्राप्त हो गये हैं ॥ ४१-४३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - इस प्रकार बकासुरके रूपमें परिणत हुआ उत्कल दैत्य जाजलिके वरदानसे
भगवान् श्रीकृष्णमें लयको प्राप्त हुआ। संतोंके सङ्गसे क्या नहीं सुलभ हो सकता ?
॥ ४४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वकासुरका मोक्ष' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌼🥀🌹🌾जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद
Jay shree Krishna
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