श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
दसवाँ अध्याय ( पोस्ट
01 )
यशोदाजी की
चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण
श्रीनारद उवाच -
अष्टावक्रस्य शापेन सर्पो भूत्वा ह्यघासुरः ।
तद्वरात्परमं मोक्षं गतो देवैश्च दुर्लभम् ॥ १ ॥
वत्साद्बकमुखान्मुक्तं ततो मुक्तं ह्यघासुरात् ।
श्रुत्वा कतिदिनैः कृष्णं यशोदाऽभूद्भयातुरा ॥ २ ॥
कलावतीं रोहिणीं च गोपीगोपान् वयोऽधिकान् ।
वृषभानुवरं गोपं नन्दराजं व्रजेश्वरम् ॥ ३ ॥
नवोपनन्दान्नन्दाश्च वृषभानून् प्रजेश्वरान् ।
समाहूय तदग्रे च वचः प्राह यशोमती ॥ ४ ॥
यशोदोवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि कल्याणं मे कथं भवेत् ।
मत्सुते बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणे क्षणे ॥ ५ ॥
पूर्वं महावनं त्यक्त्वा वृन्दारण्ये गता वयम् ।
एतत्त्यक्त्वा क्व यास्यामो देशे वदत निर्भये ॥ ६ ॥
चंचलोऽयं बालको मे क्रीडन्दूरे प्रयाति हि ।
बालकाश्चंचलाः सर्वे न मन्यन्ते वचो मम ॥ ७ ॥
बकासुरश्च मे बालं तीक्ष्णतुंडोऽग्रसद्बली ।
तस्मान्मुक्तन्तु जग्राहार्भकैर्दीनमघासुरः ॥ ८॥
वत्सासुरस्तज्जिघांसुः सोऽपि दैवेन मारितः ।
वत्सार्थं स्वगृहाद्बालं न बहिः कारयाम्यहम् ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं वदन्तीं सततं रुदन्तीं
यशोमतीं वीक्ष्य जगाद नन्दः ।
आश्वासयामासस्गर्गवाक्यैः
धर्मार्थविद्धर्मभृतां वरिष्ठः ॥ १०
॥
नारदजी
कहते हैं--अष्टावक्र के श्राप
से सर्प होकर अघासुर उन्हीं के वरदान – बल से उस परम मोक्ष को प्राप्त हुआ, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । वत्सासुर, वकासुर और फिर अघासुर के मुख से श्रीकृष्ण किसी तरह बच गये हैं और
कुछ ही दिनों में उनके ऊपर ये सारे संकट आये हैं- यह सुनकर यशोदा जी भयसे व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कलावती, रोहिणी, बड़े-बूढ़े गोप,
वृषभानुवर, व्रजेश्वर नन्दराज, नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा प्रजाजनों के
स्वामी छः वृषभानुओं को बुलाकर उन सब के
सामने यह बात कही ॥ १-४ ॥
यशोदा
बोलीं-- [आप सब लोग बतायें--] मैं क्या
करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे मेरा कल्याण हो ? मेरे पुत्रपर तो यहाँ क्षण-क्षणमें बहुत-से
अरिष्ट आ रहे हैं। पहले महावन छोड़कर हमलोग वृन्दावनमें आये और अब इसे भी छोड़कर दूसरे
किस निर्भय देशमें मैं चली जाऊँ, यह बतानेकी कृपा करें। मेरा यह बालक स्वभावसे ही चपल
है। खेलते-खेलते दूरतक चला जाता है । व्रजके दूसरे बालक भी बड़े चञ्चल हैं । वे सब
मेरी बात मानते ही नहीं ॥ ५-७ ॥
तीखी
चोंचवाला बलवान् वकासुर पहले मेरे बालकको निगल गया था । उससे छूटा तो इस बेचारेको अघासुरने
समस्त ग्वाल-बालोंके साथ अपना ग्रास बना लिया । भगवान्की कृपासे किसी तरह उससे भी
इसकी रक्षा हुई। इन सबसे पहले वत्सासुर इसकी घातमें लगा था, किंतु वह भी दैवके हाथों
मारा गया। अब मैं बछड़े चरानेके लिये अपने बच्चे को घरसे बाहर
नहीं जाने दूँगी ।। ८-९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- इस तरह कहती तथा निरन्तर रोती हुई यशोदाकी ओर देखकर नन्दजी कुछ कहनेको उद्यत
हुए। पहले तो धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नन्दने गर्गजीके वचनोंकी
याद दिलाकर उन्हें धीरज बँधाया, फिर इस प्रकार कहा-- ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव
हे नर रुप हरि: हे गोविंद हे
गोपाल ‼️ हे करुणामय दीनदयाल
💟🌹 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏 ॐ श्री परमात्मने नमः 🙏🥀🙏
नारायण नारायण नारायण नारायण